Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
४४५०
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विवेकी जीव पुण्याधिकारी महा उत्साह के घरसहारे जिन शासन के प्रसादसे प्रबोध को प्राप्त भएहैं में कब इन विषयों का त्याग कर स्नेहरूप कीच से निक्स निर्वृति का कारण जिनेन्द्रका तप श्राचरूंग में पृथिवी की बहुत सुख से प्रतिपालना करी और भोग भी मन वांचित भोगे और पुत्र भी मेरे महा पराक्रमी उपजे अवमी में वैराग्य में विलंब करूं तो यह बड़ी विपरीत है हमारे वंश की यही रीतिहै कि पुत्र को राज्यलक्ष्मी देकर वैराग्य को मारन कर महाघीर तप करनेको बम में प्रवेश करें ऐसा चिन्तवन कर राजा भोगोंमें उदासचित कई एक दिन घर में रहे। हे श्रेणिक जो वस्तु जिस समय जिस क्षेत्रमें जिसकी जिसको जितनी प्राप्त होनी होय सो उससमाउस क्षेत्र में उससे उसको उतनी निश्चय सेती होय ही होय ||
मानन्तर गौतमस्वामी कहे हैं है ममम देश के मूपति केएक दिनों में सर्व प्राणियों के हित सर्वभूपति नामा मुनि बड़े आचार्य मन पर्णय ज्ञानके धारक पृथिवी विषे विहारकस्ते संघ सहित सरयू नदी के तीर आए कैसे हैं मुनि पिता समान वह कायके जीवोंके पालक दया विषे लगाई है मन, वचन, कायकी क्रिया जिन्होंने अाचार्यकी माझा पास कईएक मुनि तो गहन वनमें बिराजे कईएक पर्वतोंकी गुफावों में कई एक वन के चैत्यालयों में कईएक वृक्षोंके कोडरोंमें इत्यादि ध्यानके योग स्थानोंमें साधु तिष्ठे और आप श्राचार्य महेन्द्रोदय नामा सबमें एक शिला पर जहां विकलत्रय जीवोंका संचार नहीं और स्त्री नपुंसक बालक ग्राम्यजन पशुवों का संसर्ग नहीं ऐसा जो निरदोष स्थानक वहां नागवृक्ष के नीचे निवास किया महा गम्भीर महा क्षमावान जिनका दर्शन दुर्लभ कर्म खिपावनेके उद्यमी महा उदार है मन जिनका महा मुनि तिनके स्वामी वर्षाकाल पूर्ण करनेको समाधि योग्य घर तिष्ठे कैसा है
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