Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
५४५५॥
रहितथी सो तिर्यंचगतिको गई अथवा मायाचार रहित सरल परणामथी सो मनुष्यणीभई अथवा समाधि मरणकर जिनराजको उरमें धर देवगतिको प्राप्तभई फिर अवधिजोड़ निश्चय किया कि उसको तो कुण्डल मण्डित हर लेगया था सो कुण्डल मडित को राजा अरण्य का सेनापति बालचन्द्र बांध कर अरण्य के पास लेगया और सबस्व लूट लिया फिर राजो अरण्य ने इसको राज्य से विमुख कर सर्व देश में अपना अमल कर इसको छोड़दिया सो भ्रमणकरता महा दुखी मुनिका दर्शनकर मधु मांसका त्याग करता भया सो प्राण त्यागकर राजा जनककी स्त्री के गर्भ में आया और वह मेरी स्त्री चित्तोत्सवासो । भी राणी के गर्भ में आई है सो वहतो स्त्री की जाति पराधीन उसका तो कुछ अपराध नहीं और वह पापी कुंडलमंडित का जीव इस राणी के गर्भ में है सो गर्भ में दुःख दूं तो राणी दुःख पावे सो उससे तो मेरा बैर नहीं ऐसी वह देव विचार कर राणी विदेहा के गर्भ में कैंडल मंडित का जीव है उसपर हाथ मसलता निरन्तर गर्भकी चौकसी देवे सो जब बालक का जन्म भया तब बालकको हरा
और मनमें विचारी कि इसको शिला पर पठक मारूं अथवो मसल डारूं फिर विचारी कि धिक्कार है मुझ को जो पाप चिन्ता बाल हत्या समान पाप नहीं तब देवने बालक को कुंडल पहराय लघु परण नामा विद्या लगाय बालक को आकाश से डारा सो चन्दगति ने झेला और राणी पुष्पवती को सौंपा सो भामण्डल ने जातिस्मरण होय सर्व वृत्तान्त चन्द्रगति को कहा कि सीता मेरी बहिन है
और राणी विदेहा मेरी माता है और पुष्पवती मेरी प्रतिपालक माता है यह वार्ता सुन विद्या धरों की सभा सर्व प्राश्चर्य को प्राप्त भई और चन्द्रगति ने भामण्डल को राज्य देय संसार ।
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