Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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४२६॥
हाहाकार कर महा शोकवन्तभए आश्चर्यकर व्याप्त हुवा है मम जिनका तत्काल पीछे नगरमें गए ॥
अथानन्तर वह अश्वके रूप का धारक विद्याधर मन समान है वेग जिसका अनेक नदी पहाड़ बन उपवन नगर ग्राम देश उलंघ कर राजा को स्थनूपुर लेगया जब नगर निकट रहा तब एक वृक्षके नीचे आय निकसा सो राजा जनक बृक्षकी डाली पकड़ लूंब रहा वह तुरंग नगरमें गया राजा वृक्षसे उतर विश्रामकर आश्चर्य सहितआगे गया वहां एक स्वर्ण मई ऊंचा कोट देखा और दरवाजा रत्नमई तोरणों कर शोभायमान और महा सुन्दर उपवन देखा उसमें नाना जातिके वृक्ष और बेल फल फूलों कर संपूर्ण देखे उनपर नाना प्रकार के पक्षी शब्द करे हैं और जैसे सांझके वादले होवें तैसे नानारंग के अनेक महिल देखे मानों ये महिल जिन मन्दिर की सेवाही करे हैं तब रोजा खड़गको दाहिने हाथ में मेल सिंह समान अति निशंक क्षत्री व्रतमें प्रवीण दरवाजे गया दरवाजेके भीतर नानाजातिके फूलों की बाड़ी और रत्न स्वर्ण के सिवाण जिसके ऐसी वापिका स्फठिकमणि समान उज्ज्वलहै जल जिसका
और महा सुगन्ध मनोग्य विस्तीर्ण कुन्द जातिके फूलों के मण्डप देखे चलायमान हैं पल्लवोंके समूह जिनके और संगीत करे हे भ्रमरों के समूह जिनपर और माधवी लतावोंके समूह फूले देखे महा सुन्दर
और आगे प्रसन्न नेत्रोंकर भगवानका मन्दिर देखा कैसा है मन्दिर मोतियों की मालरियों कर शोभित रत्नों के झरोलों कर संयुक्त स्वर्ण मई हजारां महास्तम्भ तिनकर मनोहर और जहां नाना प्रकार के चित्राम सुमेरु के शिखर समान ऊंचे शिखर और बब्रमणि जे हीरा तिनकर वेढ्या है पीठ (फ़रश) जिसका ऐसे जिन मन्दिरको देखकर जनक विचारताभयाकि यह इन्द्रका मन्दिरहे अथवा अहिमिन्द्र का ||
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