Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
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पद्म || मन्दिरहै ऊर्धलोकसे पायाहेअथवा नागेन्द्रका भवन पातालसे आया है अथवा किसी कारणसे सूर्यको किरणों |
का समूह पृथिवीमें एकत्र भयाहै अहो उस मित्रविद्याधरने मेरा बड़ा उपकारकिया जो मुझे यहांलेबाया ऐसा स्थानक अबतक देखा नहीं था भला मन्दिर देखा ऐसा चितवन कर महा मनोहर जो जिनमन्दिर उत्तमें गया फलगयाहै मुखकमल जिसका श्रीजिनराजका दर्शन किया कैसे हैं श्रीजिनराज स्वर्ण समान है वर्ण जिनका और पूर्णमासी के चन्द्रमा समान है सुन्दर मुख जिनका और पद्मासन विराजमान अष्ट प्रातिहार्यं संयुक्त कनकमई कमलोंकर पूजित और नाना प्रकारके रत्नोंकर जड़ित जे छत्र वे हैं सिर पर जिनके और ऊंचे सिंहासनपर तिठे हैं तब जनक हाथजोड़ सीसनिवाय प्रणाम करताभया हर्षकर रोमांच होय पाए भक्तिके अनुरागकर मूर्छा को प्राप्तभया क्षणएकमें सचेत होय भगवानको स्तुति करने लगा। अति विश्रामको पाय परम अाश्चर्यको धरता संता जनक चैत्यालय में तिष्ठे है ॥ __अथानन्तर वह चपतवेग विद्याधर जो अश्व को रूपकर इलको ले आया था सो अश्वका रूप दूर कर राजा चन्द्रगति के पास गया और नमस्कार कर कहतोभया कि में जनकको लेआयाहूं मनोग्य वन में भगवान के चैत्यालय में तिष्ठे है, तब राजा सुन कर बहुत हर्ष को प्राप्त भया थोड़ेसे समीपी लोक लार लेय राजा चन्द्रगति उज्ज्वल है मन जिसका पूजा की सामग्री लेय मनोरथ समान रथ पर श्रारूढ़ होय चैत्यालय में आया सो राजा जनक चन्दगति की सेनाको देख और अनेक बादित्रों का नाद
सुन कर कछू इक शंकायमान भया कैएक विद्याघर मायामई सिंहों पर चढ़े हैं कैएक मायामई हाथीयों | पर चढ़े हैं कैएक घोडाबों पर चढ़े कईएक हंसो पर चढ़े तिन के वीच राजा चन्द्रगति है सो देख कर |
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