Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण ॥४२॥
महासुन्दर है ऐसा लिखा मानों प्रत्यक्षही है सो उपबन विषे चन्द्रगतिका पुत्र भामण्डल अनेक कुमारों। || सहित क्रीडा करने को आया था सो चित्रपट उस के सभीष डार श्राप छिप रहा सो भामण्डल ने यहतो
न जानीकि यह मेरी बहिनका चित्रपटहै परन्तु चित्रपट देख मोहित भया लज्जा और शास्रज्ञान और विचार सब भूल गया लम्बे लम्बे निश्वास नापे होठ सूक गए गात शिथिल होयगया रात्रि दिवस निदान
आवे अनेक मनोहर उपचार कराए तो भी इसे सुख नहीं सुगन्ध पुष्प और सुन्दर आहार इसे विष समान लगें।शीतल जलसेवांटिये तो भी सन्ताप न मिटे कभी मौन पकड़रहे कभी हंसे कभी विकथा बके कभी उठ खड़ा रहे बृथा उठ चले फिर पीछे श्रावे ऐसी चेष्य करे मानों इसे भूत लगा है तब बड़े बड़े बुद्धिमान इसे कामातुर जान परस्पर बात करते भए कि यह कन्या का रूप किसी ने चित्र पट विषे लिखकर इसके ढिग आय डारा सो यह विक्षिप्त होय गया कदाचित यह चेष्यनारद ने ही करा होय तब नारदने अपने उपोयकर कुमार को व्याकुल जान लोकों की बात सुन कुमार के बन्धूवोंको दर्शन दिया तब तिनने बहुत आदर कर पूछाहे देव कहो यह कौन की कन्याका रूपहै। तुमने कहां देवीक्या यह । कोई स्वर्गकी देवांगना को रूपहै अथवा नाग कुमारी का रूप है पृथिवी विषे आई होवेगी सो तुमने देखी तब नारद माथा हलाय कर बोला कि एक मिथिला नाम नगरीहै वहां महासुन्दर राजा इद्र केतु का पुत्र जनक राज्य करे है उसके विदेहा राणी है सो राजा को अति प्रिय है तिन की पुत्री सीताका यह रूपहै ऐसा कह कर फिर नारद भामण्डल से कहते भए हे कुमार तू विषाद मत कर तू विद्याधर | राजा का पुत्र है तुझे यह कन्या दुर्लभ नहीं सुलभही है । और तू रूप मात्र ही से क्या अनुरागी भया।
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