Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन्न
॥४२३॥
। इसमें बहुत गुण हैं इस के हाव भाव विलासादिक कौन वर्णन कर सके और यही देख तेरा चित वशीभूत हुया सो क्या आश्चर्य है। जिसे देखे बड़े पुरुषों का भी चित्त मोहित होयजाय । में तो यह
आकारमात्र पट में लिखा है उसकी लावण्यता उस ही विषे है लिखने में कहां आवे नवयौवन रूपजल कर भरा जो कान्ति रूप समुद्र उस की लहरों विषे वह स्तन रूप कम्भों कर तिरे है और ऐसी स्त्री तुझे टार और कौन को योग्य तेरा और उस का संगम योग्य है इस भान्ति कह कर भामंडलको अति स्नेह उपजाया और पाप नारद आकाश में बिहार कर गए भामंडल कामके बाण कर वेध्या अपने चित्तमें विचारता भया कि यदि यह स्त्री रत्न विही मुझे न मिले तो मेरा जीवना नहीं देखो यह श्राश्चर्य है वह मुन्दरी परमकांति की धरणहारी मेरे हृदय में तिष्ठती हुई अग्निकी ज्वाला समान हृदय को प्राताप करे है सूर्य है सो तो वाह्य शरीर को प्राताप करे है और कामह सो अन्तर वाह्यदाह उपजावे है सो सूर्यके आताप निवारवेको तो अनेक उपायहै परंतु कामके दाह निवारवेका उपाय नहीं अब मुझे दो अवस्था आय बनी, कैतो उसका संयोग होय अथवा कामके वाणों कर मेग मरण होयगा निरन्तर ऐसा विचारता हुवा भामंडल विव्हल होगया सो भोजन तथा शयन सब भूल गया ना महल में ना उपबन में इसे किसी गैरसाता नहीं यह सब वृत्तान्त कुमार के व्याकुलता का कारण नारदकृत कुमारकी माता जानकर कुमारके पिता से कहतीभई हे नाथ अनर्थका मूल जो | नारद उसने एक अत्यन्त रूपवतीस्री का चित्रपट लाय कर कुमार को दिखाया सो कुमार चित्रपट को देख कर पति विभ्रम चित्तहोय गया सोधीर्य नहीं घरे है लज्जा रहित होय गया है बारम्बार चित्रपट को निरखे
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