Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
ugotu
| अत्यन्त निर्मल होय है जै मलेच्छ और चाण्डाल है और दयावान होवें हैं वह मधु मांसादिकका त्याग
करे हैं सो भी पापों से छूटे हैं पापोंसे छूटा हुआ पुण्यको प्रहे है और पुण्य के बंधन से देव अथवा मनुष्य होय है और जो सम्यकदृष्टि जीवहें सो अणुव्रतको धारणकर देवों का इन्त्रहोय परमभोगों को भोगे है फिर मनुष्यहोय मुनिव्रत धर मोचपद पावे हे ऐसे प्राचार्य के बचनसुनकर यद्यपि कुंडलमंडितअणुव्रतकेधारने में शक्तिरहित है तो भी सीसनकाय गुरुओंको सविनय नमस्कारकर मद्यमांसकात्याग करताभया,और समीचीन जो सम्यक दर्शन उसकाशरण ग्रहा भगवान की प्रतिमाको नमस्कार और गुरुवों को नमस्कार कर देशांतर को गया मनमें ऐसी चिंता भई कि मेरा मामा महापराक्रमी है सो निश्चय सेती मुझे खेदखिन्न जान मेरी सहायता करेगा मैं फिर राजा होय शत्रुओं को जीतूंगा ऐसी आशा धर दविण दिशाजायवेको उद्यमी भया सो प्रति खेदाखिन दुखसे भरा धीरा आताथा सो मार्ग में शत्यन्तब्याधि वेदनाकर सम्यक रहित होय मिथ्यात्व गुण ठाने मरणको प्राप्त भया कैसा हे मस्या नहीं है जगत में उपाय जिसका सो जिस समय कुंडल मंडित के प्राण छूटे सोराजा जनक की बी विरेहा के गर्भ में पाया उसी ही समय बेदवती का जीवजओ चित्तोसवा भई थी सो भीतपके प्रभाक्से विदेशाके गर्भ में पाई ये दोनों एक गर्भमें माए
और वह पिंगल ब्राह्मण जो मुनिकेत घर भषनवासी देवभया था सो अवधि कर अपने तपका फल जाम फिर विचारता भयाकि वह चित्तोत्राथा कहां और वह पापी कुंडलमंडित कहां जिस से में पूर्व भव | में दुख अवस्था को प्रातमय अब वे दोनोंगजा जमा कीनी के गर्भ में पाए सो वह तो स्त्रीकोजाति पराधीन थी उस पापी कुंडलमंडित ने अन्याय मार्य किया सोयह मेरा परम शत्रु है जो गर्भ में गिरावना
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