Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥४१६॥
रोजाको प्राप्त होय है यह सर्व वृत्तांत राजा दशरथ सुनकर भाप चलनेको उद्यमीभए और श्रीरामको बुलाय राज्य देना विधारा वादिनों के शब्द होतेभए त मन्त्री मार और सब सेवक पाए हाथी घोड़े स्व पयादे सब पाप गढ़े भए जलको भरे स्वर्षमयी कलश स्नान के निमित्त सेवक लोग भरसाए और शस्त्र बांध कर बड़े बड़े सामन्त लोक पाए और नृत्यकारिणी नृत्य कस्ती भई और राजलोक की सी जन नाना प्रकार के बस प्राभूषण पाम में खेले भाई यह राजाभिषेकका प्रारंवर देखकर राम दरारप से पूछते भो कि हे प्रभो यह क्या है तक दशरयने कही हे पुत्र तुम इस पृथिवीकी प्रतिपालना करो में ममा के हित निमित्त सत्रुकों के समूहसे सड़नेजाजा वे शत्रु देवोंफरभी दुर्जयहें तप कमलसारिखे नेत्रो जिसके ऐसे भीराय काइले गए हे तात ऐसे रंकन पर एता पस्त्रिय कहां वे आपके जायचे लायक नहीं के पशुसमान दुरास्मा निमसे संभाषण करनाभी उचित नहीं जिनके सन्मुख युद्धकी अभिलाषाकर भाप कहां पधारे उन्दर (वहा) के उपद्रव कर हस्ती क्रोध न करे और रुईके भस्मकरनेके अर्थ अग्नि कहां परिश्रम करे उमपर जानेकी हमको आज्ञा करो यही उचित है ये गमके वचनसुन दशरथ प्रति हर्षितभये तब रामको उरसे लगोय कर कहते भए हे पद्मकमल समान हे नेत्र जिसके ऐसे तुम बालक सुकुमार अंग कैसे उन दुष्टोंको जीतोगे यह बात मेरे मनमें न आवे तब राम कहतेभपे हे तात क्या तत्कालका उपजा अग्निका कणका मात्रभी विस्तीर्ण बनको भस्म न करे करेही करे छोटी बड़ी अवस्थापर क्या प्रयोजन और जैसे
अकेला उगताही बाल सूर्य घोर अंधकार के समूहको हरेही हरे तैसे हम बालकही तिन दुष्टोंको जीतेंही | जीतें ये बचन रामके सुनकर राजा दशरथ अतिप्रसन्नभए रोमांच होय पाए और बालक पुत्रके भेजने ।
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