Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥४१॥
पद्म का कछु इक विषादभी उपजा नेत्र सजल होयगए राजा मनमें विचारे है जो महा पराक्रमी त्यागादि |
बत के धारणहारे क्षत्री तिनकी यही रीति है जो प्रजाकी रक्षा के निमित्त अपने प्राणभी तजने का उद्यम करें अथवा आयुके क्षय विना मरणनहीं यद्यपि गहन रणमें जाय तोभी न मरे ऐसाचितवन करतो जो राजा दशरथ उसके चरणकमल युगको नमस्कारकर रामलक्ष्मण बाहिर निसरे सर्व शास्त्र और शस्त्र विद्या में प्रवीण सर्व लक्षणोंकर पूर्ण सबको प्रिय है दर्शन जिनका चतुरंग सेनाकर मण्डित विभूतिकर पूर्ण अपने तेजकर देदीप्यमान दोनों भाई राम लक्ष्मण स्थ में प्रारूढ़ होय जनककी मदतचले सो इनके जायबे पहिले जनक और कनक दोनोंभाई परसेनाका दोयोजनअन्तर जान युद्ध करणेकोचढ़े थे सो जनक के महारथी योघा शत्रुवोंके शब्द न सहते संते म्लेच्छों के समूहमें नैसे मेघकी घटामें सूर्यादि ग्रहप्रवेश करें तैसे यह थे सो म्लेच्छोंके और सामंतोंके महायुद्ध भया जिसके देखे और सुने रोमांच होय भावें कैसा
संग्राम भया बड़े शस्त्रनका है प्रहार जहां दोनों सेनाके लोक व्याकुलभए कनकको म्लेंछका दवाव भया तब | जनक भाईकी मदतके निमित्त अतिक्रोधायमान होय दुर्निवार हाथियोंकी घटा प्रेरता भया सो वेवरवर ' देश के म्लेल महा भयानक जनकको भी दबावते भये उसी समय राम लक्ष्मण जाय पहूंचे अति अपार
महागहन म्लेछ की सेना रामचन्द्र ने देखी, सो श्री रामचन्द्र का उज्ज्वल छत्र देख कर शत्रुवों की सेना कंपायमान भई, जैसे पूर्णमासी के चंद्रमा का उदय देखकर अंधकार का समूह जे चलायमान होय, म्लेछों | केवाणों कर जनक का वषतर टूट गया था और जनक खेदखिन्न भया था सो राम ने धीर्यबंधाया जैसे । संसारी जीत द्रों के उदय कर दुःखी होय सो धर्म के प्रभाव कर दुखों से छूट सुखी होय तैने जनक
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