Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥४०६॥
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चाहूं लूं आप कृपाकर कहो तब गुरु कहते भए धर्म जीव दयाा है सव प्राणी अपनी निन्दाकर और गुरुवोंके पास आलोचना कर वापसे छुटे हैं त अपना कल्याण चाहे है और शुद्ध धर्म की अभिलाषा करें है जो हिंसा का कारण महा घोर कर्म लहूं और वीर्य से उपजा ऐसा जो मांस उसका भक्षण सर्वया तज सर्वही संसारी जीव मरण से डरे हैं तिम को मांस कर जे अपने शरीर को पोषे हैं वे पापी निस्संदेह मरक में मड़ेंगे जे मांस का भक्षण करे हैं और निस्यस्नान करें हैं तिनका स्नान वृथा है
और मूंड पडाय भेष लिया सो भेष भी वृथा है और तीर्थ यात्रा और अनेक प्रकार के दान उपवासादिक यह मांसाहारी को नरक से नहीं बचासक्ते हैं इस जगत् में ये संबही जाति के जीव पूर्व जन्ममें इस जीवके बांधव भएहैं इस लिये जो पापी मांसका भक्षण करे है उसने तो सर्व बांधव भषे जो दुष्ट निर्दई मच्छ मृग पक्षियोंको हने हैं और मिथ्यामार्गमें प्रवरते हैं सो मधु मांसके भक्षण से महा कुगतिमें जावें हैं यह मांस बृक्षों से नहीं उपजे है भूमि से नहीं उपजे है और कमलकी न्याई जल से नहीं निपजे है अथवा अनेक बस्तुओं के योग से जैसे औषधि बने है तैसे मांसकी उत्पति नहीं होय है दुष्ट जीव निर्दयी वा गरीब बड़ा वल्लभहै जीतब्य जिनको ऐसे पची मृग मत्स्यादिक तिनको हनकर मांस उपजावे हैं सो उत्तम जीव दयावान नहीं भषे हैं और जिनके दुग्धसे शरीर वृद्धि को प्राप्त होय ऐसी गाय भैंस छेली तिनके मृतक शरीरको भषे हैं अथवा मार मार कर भषे हैं तथा तिनके पुत्र पोत्रादिकको भषे हैं वे अधर्मी महानीच नरक निगोदके अधिकारी हैं जो दुराचारी मांस भषे हैं उसने माता पिता पुत्र मित्र सहोदर सबही भषे।इस पृथ्वीके तले भवनवासी और ब्यन्तर देवोंके ||
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