Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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उपजा महासान्तचित्त होय जिनेंद्र के मार्ग की प्रशंसा करता थया मन में विचारे हैअहो यह जिनराज का मार्ग परम उत्कृष्ट है मैं अन्धकार में पड़ा था सो यह जिनधर्म का उपदेश मेरे घट में सूर्य समान प्रकाश करता भया में अब पापों का नाश करनहारा जो जिन शासन उसका शरण लेऊ, मेरा मन और तनु विरहरूप अग्नि में जरे है सो में शीतल करूं, तब गुरु की आज्ञा से वैराग्य को पाय परिग्रह का त्याग कर दिगम्बरी दीक्षा घरता भया, पृथिवी पर विहार करता सर्व संग का परित्यागी नदी पर्वत मसान बन उपवनों में निवास करता तपकर शरीर का शोषण करता भया जिसके मनको वर्षाकाल में प्रति वर्षा भई तोभी खेद न उपजा और शीतकालमें शीत वायु से जिस का शरीर न कांपा और ग्रीषम ऋतु में सूर्यकी किरणों से व्याकुल न भया इसका मन विरह रूप अग्निकर जला था सो जिनवचन रूप जल की तरंगों से शीतल भया तपकर शरीर अर्धदग्ध वृक्ष के समान होगया अब विदग्धपुर का राजा जो कुंडल मण्डित उसकी कथा सुनो राजा दशरथका पिता अरण्य अयोध्या में राज करे है सो यह कुण्डल मण्डित पापी गढ़के बलकर अरण्यके देश को विराधे जैसे कुशील पुरुष मर्यादा लोप करे तैसे यह उस की प्रजाको बाधा करे राजा अरण्य बड़ाराजा उसके वहुत देश सो इसने कैएक देश उजाड़े जैसे दुर्जन गुणों को उजाड़े और राजा के बहुत सामन्त विराधे जैसे कषाई जीवके परिणाम विराधे और योगी कषायों का निग्रह करे तैसे इसने राजासे विरोध कर अपने नाशका उपाय किया सो यद्यपि यह राजा अरण्य के आगे रङ्क है तथापि गढ़ के बल से पकड़ा न जाय जैसे मसा पहाड़ के नीचे जो विल उस में बैठ जाय तब नाहर क्या करे सो रोजा अरण्यको इस चिन्ता से रात दिन चैन न पड़े आहारादिक
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