Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म ही पीतम को प्रियाके ढिग लेग्राई, तब भयभीत हिरणीकेनेत्र समान सुन्दरहनेत जिसकेऐसी प्रिया पति पुराण को देख सन्मुख जाय हाथ जोड़ सीस निवाय पायन पड़ी, तब प्राणवल्लभने अपने करसे सीए उठाया
खड़ी करी अमृत समान वचन कहे कि हे देवी!क्लेश का सकल खेद निवृत्त होवे सुन्दरी हाथ जोड़ पति के निकट खडी थी पतिने अपने करसे कर पकड़ कर सेज पर बैठाई, तब नमस्कार कर प्रहस्त तोबाहिर गए और वसन्तमाला भी अपने स्थानक जाय बैठी पवनंजय कुमार ने अपने अज्ञान से लज्जावान हो सुन्दरी से बारम्बार कुशल पूछी और कही हे मिए ! मैं ने अशुभ कर्म के उदय से जोतुम्हारा वृथा निरादर किया सो क्षमाकरो तब सुन्दरी नीचो मुखकर मन्दमन्द वचन कहतीभई हे नाथ !अापनेपराभव कछ न किया कर्म का ऐसाही उदय था अब आपने कृपाकरी अति स्नेह जताया सो मेरे सर्वमनोरथ सिद्धकिये आपके ध्यान कर संयुक्त हृदय मेरा सो श्राप सदा हृदयहीमें विराजते श्रापका अनादर भी आदर समान भासा इस भांति अञ्जनी सुन्हरी ने कहा तब पवनंजयकुमार हाथ जोड़ कहतेभए कि हे प्राणप्रिये ! में वृथा अपराध किया पराए दोषसे तुमको दोष दिया सो तुम सब अपराध हमारा विस्मरण करो में अपना अपराध
क्षमावने निमित्त तुम्हारे पायन परुंहूं तुम हमपर अति प्रसन्नहोवो ऐसा कहकर पवनञ्जयकुमारने अधिक । स्नेह जनाया तब अंजनी सुन्दरी महासती पति का एता स्नेह देखकर बहुत प्रसन्न भई और पति
को प्रियवचन कहती भई, हे नाथ मैं अति प्रसन्न भईहम तुम्हारे चरणारविंद की रज हैं हमारा इतना विनम | तुम को उचित नहीं ऐसा कहकर सुखसे सेजपर विराजमान किये, प्राणनाथकी कृपासे प्रियाका मन अतिप्रसन्न | भया और शरीर अतिकांति को धरता भया, दोनों परस्पर प्रतिस्नेह के भरे एक चित्त भये । सुख रूप ।
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