Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
करणहारा जिनवर भाषित धर्म सोई भया सूर्य उसके प्रतापकर मोहतिमिरहरो । इति सोलहवांपर्व संपूर्णम् अथानन्तर कैयक दिनोंमें महेंद्रकी पुत्री जो अंजनी के गर्भके चिन्ह प्रकट भए कछु इक मुख ३०२ पांडु वर्ण होगया मानों हनुमान गर्भमें आए सो उनका यशही प्रकट भयो है मन्द चाल चलने लगी जैसा मदोन्मत दिग्गज विचरे स्तनयुगल अति उन्नतिको प्राप्त भए श्यामलीभूत हैं अग्रभाग जिनके आलससे वचन मन्द मन्द निसरे भौहों का कंप होता भया इन लक्षणों कर उसे सामू गर्भिणी जान कर पूछती भई तैंने यह कर्म किससे किया तब यह हाथ जोड प्रणाम कर पतिके आवनेका समस्त बृतांत कहती भई तब केतुमती सासू क्रोधायमान भई महा निठुर बागी रूप पाषाण कर पीडती भई है। पापिनी मेरा पुत्र तेरेसे प्रति विरक्त तेरा आकार भी न देखाचाहे तेरे शब्दको श्रवण विषेधारे नहीं मातापिता से विदा होकर रण संग्रामको बाहिर निकसा वह धीर कैसे तेरे मंदिरमें आवे हे निर्लज्जे धिक्कार है तु पापिनीको चंद्रमा की किरण समान उज्ज्वलबंशको दूषण लगावनहारी यह दोनों लोक
निन्द्य अशुभ क्रिया तैंने आचारी और तेरी यह सखी बसंतमाला इसने तुझे ऐसी बुद्धिदीनी कुलटा के पास | वैश्या रहे तब काहेकी कुशल मुद्रिका और कडे दिखाए तो भी उसने नमानी अत्यन्त कोप कियाएक क्रूर नामा किंकर बुलाया वह नमस्कारकर प्राय ठाढ़ा तब क्रोध कर केतुमतीने लाल ने कर कहा हे क्रूर सखीसहित इसे गाडी में बैठाय महेंद्रके नगर के निकट छोड़ा तब वह क्रूर केतुमतीकी श्राज्ञा से सखीसहित जनीको गाडीमें बैठाकर महेंद्रके नगरकी ओर लेचला कैसी है अंजनी सुन्दरी प्रति Aaj है शरीर जिसका महा पवनकर उपडी जो बेल उससमान निराश्चय प्रति श्राकुल कांतिरहित दुख
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