Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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।। है वरुण ने फिर माथा उठाया है महासामंत है उसके बड़ी सेनाहे पुत्र बलवान हैं।और गढ़ का बल है
तब हनूमानविनयकर कहते भए कि मेरे होते तुमको जाना उचितनहीं, तुम मेरे गुरुजनहो तबउन्होंनेकही हे वत्स तू बालकहै अबतक रण देखानहीं तब हनुमान् बोले अनादिकालसे जीवचतुर्गतिविषेभ्रमणकरे है पंचमगति जो मुक्त सो जब तक अज्ञान का उदय है तब तक जीवने पाई नहीं परन्तु भव्य जीव पावेही हे तेंसे हमने अबतक युद्ध कियानहींपरन्तु अवयुद्धकर वरुणकोजीतेहींगे औरविजयकरतुम्हारेपासावें सो जब उनोंने राखने का घनाही यत्ल किया परन्तु ये न रहते जाने तब उन्होंने प्राज्ञा दई यह स्नान भोजन कर पहिले पहिरही मलीक द्रव्यों कर भगवान की पूजा कर अरिहंत सिद्ध को नमस्कार कर माता पिता और मामाकी माज्ञा लेय बड़ों का विनयकर यथा योग्य संभाषण कर सूर्य तुल्य उद्योतरूपजो विमान उसमें चढ़कर शास्रके समूह कर संयुक्त जे सामंत उन सहित दशों दिशा में ब्याप रहा है यश जिस का लंका की ओर चला सो त्रिकूटाचल के सन्मुख विमान में बैठा जाता ऐसा सोभता भया जैसा मंदराचल के सन्मुखजाता ईशान इन्द्र शोभे है तब बीचिनामा पर्वत पर सूर्य अस्त भथा कैसा है पर्वत समुद्रकी लहरों के समूहकर शीतल हैं तट जिसके वहां रात्रि सुखसे पूर्ण करी और करीहै महायोघावोंसे बीस्रसकी कथा जिसने महा उत्साह से नाना प्रकार के देश द्वीप पर्वतोंको उलंघता समुद्र के तरंगोंसे शीतल जे स्थानक तिनको अवलोकन करता समुद्र में बड जलचरों को देखता रावण के कटक में पोहचा हनूमान् की सेना देख कर बड़े बड़े. राक्षस विद्याधर बिस्मय को प्राप्त भए परस्पर वार्ता करे हैं यह बली श्रीशैल हनूमान् भव्य जीवों विष उत्तम जिसने बाल अवस्था में गिरि को चूर्णकिया ऐसे अपने यश |
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