Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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AIM और मुनि पद की क्रिया से मंडित हैं जिनके शत्रु मित्र समानहें। और रन और तण समान हें.मान और मत्सर ।
से रहित हे मन जिनका । वश करी हे पांचों इंद्रियें जिन्होंने निश्चल पर्वत समान वीतराग भावहें जिनकले। | दखे जीवों का कल्याण होय इस मनुष्य देह का फल इन्होंने ही पाया यह विषय कषायों से न ठगाए। कैसे हैं विषय कषाय महा कर हैं और मलिनता के कारण हैं में पापी कर्म पाश कर निरन्तर बंधा। जैसे चन्दन का वृक्ष सों से वेष्टित होयहै तैसे में पापी आसावधानचित्त अचेत समान होयरहा धिक्कार है। मुझे में भोगादि रूप नो महा पवत उसके शिखर पर निद्रा करूं हूँ सो नीचेही पडंगाजो इस योगीन्द्र की सी अवस्था घर तो मेरा जन्म कृतार्थ होय ऐसा चितवन करते बजबाहुकी दृष्टि मुनिनाथ में अत्यन्त निश्चल भई मानों थंभ से बांधीगई तब उसका उदयसुन्दर साला इस को निश्चल देख मुलकता हुवा इसे हाखके बचन कहतो भया मुनिकी ओर अत्यन्त निश्चल होय निरखोहो सो क्या दिगम्बरीदीक्षा घरोगे तब बजबाहु बोले जो हमारा भावथा सो तुमने प्रकट किया अब तुम इसही भावकी वार्ता कहो तब वह इसको रागी जान हास्य रूप बोलाकि तुम दीक्षा घरोगेतो मेंभी धरूंगा परन्तु इस दीक्षासेतुम अत्यन्त उदास होवोगे, तब बमबाहु वोलें यह तो ऐसे ही भई यहकह कर विवाह के आभूषण उतारडार ओर हाथी से उतरे तब मृगनयनी स्त्री रोवने लगी। स्कूल मोती समान अश्रुपात डारती भई तब उदय सुन्दर आंसू डारता भया हे देव यह हास्य में कहां विपरीत करो हो तब बजवाहु अति मधुरबचन से ! उसको शान्तता उपजावते हुए कहते भए हे कल्याणरूप तुम समान उपकारी कौन में कूपमें पडू या सो तुमने राखा तुमसमान मेरा-तीनलोकमें मित्रनहीं। हेउदयसुन्दर जो जन्मा है सो अवश्यमरेगा और जो मूभा
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