Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पत्र
पुरात
॥३an
जन्म कैसे छिपे किसी मनुष्य दरिद्रीने व्यके अर्थके लोभसे रानासे प्रकट किया तब राजाने मुकट अादिसर्व आभूषण उसको अंगसे उतार दिये और घोषशाखा नामा नगर महा रमणीक अविधनकी उत्पतिका स्थामक सौ गांव सहित दिया और पुत्रपंदरह दिनका माताकी गोदमें तिष्ठताथा सो तिलककर उसको राज पद दिया जिससे अयोध्या अति रमणीक होती भई और अयोध्याका नाम कौशलभीहै इस लिये उसका सुकौशल नाम प्रसिद्ध भया केसाहै सुकौशल सुन्दर है चेष्टा जिसकी सुकौशल को राज्य देय सजा कीर्तिपर घर रूप बन्दीगृहसे निकसकर तपोवनको गये मुनि प्रत भादरे तपसे उपजा जो तेज उससे जैसे मेवपटल से रहित सूर्य शोभे तैसे शोभते भये । इति इक्कीसवां पर्व सम्पूर्णम् । - प्रधानन्तर कयक वर्ष में कीर्तिधर मुनि पृथिवी समान है क्षमा जिनकेदरभया है मानमत्सर जिनका और पदारहे चित्त जिनका, तपकर शोखा है सर्वमंग जिन्होंने और लोचन ही हैं सर्व आभूषण जिनके प्रलंक्ति हैं महाबाहु और जुड़े प्रमाण धरती देव अधोदृष्टि गमन करे हैं जैसे मत्तगजेन्द्र मन्द मन्द गमन करें तैसे जीवदया के अर्थधीराधीरा गमन करे हैं, सर्व विकार रहित महा सावधानी ज्ञानीमहा विनयवान् लोभ रहित पंच आंचार के पालनहारे जीवदयासे विमल है वित्त जिनका स्नेह रूप कर्दम से रहित स्नानादि | शरीरसंस्कार से रहित मुनिपदकी शोभा से मंडित सो माहार के निमित्त बहुत दिनों के उपवासे नगर में प्रवेश करते भए तिनको देख कर पापनी सहदेवी उनकी स्त्री मन में विचार करती भई कि कभी इनको देख मेरा पुत्र भी बैराग्य को प्राप्त नहोय तब महाक्रोध करलाल होय गया है मुख जिसका दुष्टचित्त द्वारपालों से कहती भई, यह यति नग्न महामलिन घर का खोऊ है इसे नगर से बाहिर निकास देवो फिर नगर में
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