Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
| नहीं जिस ने अभयदान दिया उसने सब ही दिया अभय दान का दाता सत्पुरुषों में मुख्य है ॥
अथानन्तर विभीषण ने दशस्थ और जनक के मारनेको सुभट विदाकिये और हलकारे जिनके संग में वे सुभट शस्त्रहें हाथों में जिनके महा कर छिपे बिपे रातदिन नगरीमें फिरें राजाके महिल अति ऊंचे सो प्रवेश न करसकें इनको दिन बहुत लगे तब विभीषण स्वयमेव माय महिलमें गीत नाद सुन महिल में प्रवेशकिया रोजा दशरथ अन्तःपुस्केराम रावन कस्ता देखा विभीषण तो दूरस्टाढ़े रहे ओरएकविद्युदिलसित नामा विद्यापर हैं उसको पठाया कि इसका मस्तक ले पायो सोमाय मस्तक काट विभीषणको दिया सी राजलोक रोय उठे विभीषण इनका औरजनक का सिर समुद्र विषे डार आप रावण के निकट गया रावण को हर्षित किया इन दोनों राजनकी गणी विलापकरें फिर यह जानकर कि कृत्रिम पूतला था तब यह संतोष कर बैठरही और विभीषण लंकाजाय अशुभकर्म के शान्तिके निमित्त दान पूजादि शुभ क्रिया करता भया और विभीषण के चित्त में ऐसा पश्चाताप उपजा जो देखो मेरे कौन कर्म उदय प्राया जो भाई के मोहसे वृथा भय मान वापरे रंक भूमिगोचरी मृत्युको प्राप्तकिए जो कदाचित् आशी विष (पाशीविष सर्प कहिये जिसेदेखे विष चढ़े ) जातिका सर्प होय तोभी क्या गरुड़को प्रहार करसके कहां बह अल्प ऐश्वर्यके स्वामी भूमिगोचरी और कहां इन्द्र समान शूर वीरताका घरणहारा रावण और कहां मूसा कहां केसरी सिंह जिसके अवलोकन से माते गजराजों का मद उतर जाय कैसा है केसरी सिंह पवन समान हे वेग जिसका अथवा जिस प्राणी को जिस स्थानक में जिस कारण से जेता दुःख भोर सुख होना हे उसको पाकर उस स्थानक में कर्मों के वशसे अवश्य होय हैं और यह
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