Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण ॥३४॥
तक करिए तब उसके पिताने विचारा कि ऐसी कन्याके याग्ये बर कौन,स्वयंवरमंडप करिए वहां यह श्राप ही बरे उसने हरिवाहन आदि अनेक राजा स्वयंवरमंडपमें बुलाए सो विभवकर संयुक्त पाए वहां भ्रमते संते जनकसहित दशरथभी आए सो यद्यपि इनकेनिकट रायका विभव नहीं तथापि रूप और गुणों से सर्व राजाओंसे अधिकहै सर्वराजा सिंहासनपर बैठे और केकईको द्वारपाली सबनके नाम ग्राम गण कहे हैं सो वह विवकिनी साधुरूपणी मनुष्योंके लक्षण जाननेवारी प्रथमतो दशरथकी ओर नेत्ररूप नीलकमलकी मालाडारी फिर वह सुंदर बुद्धिकी धरनहारी जैसे राजहंसनी बुगलोंके मध्य बैठेजोराजहंस उसकी ओर जाय तैसे अनेक राजाओं के मध्यबैठाजो दशरथ उसकीओर गई सो भावमालातो पहिलेहीडारी थी और द्रव्यरूप जोरत्नमाला सोभी लोकाचारके अर्थ दशरथके गलेमें डारी तबकै एक नृपजे न्यायवंत बैठेथे वे प्रसन्नभए और कहतेभए कि जैसी कन्याथी वैसाही योग्यवर पाया और कैएक विलषे होय अपने देश उठगए और कैएक जे अति धीठथे वे क्रोधायमान होय युद्धको उद्यमी भए और कहते भए जे बड़े २ बंशके उपजे और महा ऋद्धिके मंडित ऐसे नृप उनको तजकर यह कन्या नहीं जानिये कुल शील जिसका ऐसा यह विदेशी उसे कैसे बरे खोटा है अभिप्राय जिसका ऐसी कन्याहै इसलिये इस विदेशी को यहांसे काढ़कर कन्याके केश पकड़ बलाकार हरलो ऐसा कहकर वे दुष्ट कैएक युद्धको उद्यमीभए तब राजा शुभमति अतिव्याकुलहोय दशरथको कहताभया हे भव्य मैं इन दुष्टोकी निवारूंह तुम इस कन्याको रथमें चढ़ाय अन्यत्र जावो जैसा समय देखिये तैसा करिए सर्व राजनीतिमें यह बात मुख्य || है इसभांति जब सुसुरने कही तब राजादशरथ अत्यन्त धीरबुधि जिनकी हंसकर कहते भए हे महाराज ||
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