Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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| जो भांगेगी सोहीमें दूंगा और सर्बही राजलोक केकई को देख हर्षको प्राप्त भए और चित्तमें चितवते,
भए यह अद्भुत बुद्धिनिधान है सो कोई अपूर्ण वस्तु मांगेगी अल्पवस्तु क्या मांगे॥ ___ अथानन्तर गौतमस्वामी श्रेणिक से कहे हे हे श्रेणिक लोक का चरित्र में तुझे संक्षेपताकर कहा जो पापी दुराचारी हैं वे नरक निगोद के परम दुःख पावे हैं और जे धर्मात्या साघु जनहें वे स्वर्गमोक्ष में महा सुख पावे हैं भगवानकी आज्ञा के अनुसार बडे सत्पुरुषोंके चरित्र तुझे कहे अब श्रीरामचन्द्रजी की उत्पत्तिसुन कैसे हैं श्रीरामचन्द्रजी महा उदार प्रजाके दुखहरणहारे महा न्यायवन्त महाधर्मवन्त महा विवेकी महा शूरवीर महाज्ञानी इक्ष्वाकु वंशकाउद्योत करणहारेबढ़े सत्त्ररुषहें। इति चौवीसवां पर्व संपूर्णम् ___अथानन्तर जिसे पराजिता कहे हैं ऐसी जो कौशल्या सो रत्नेजड़ित महिल विषे महासुन्दर सेज पर सूती थी सो रात्री के पिछले पहिर अतिसय से अद्भुतः स्वप्न देखती भई उज्ज्वल हस्ती इन्द्र के ऐशक्त हस्ती समान १ और महा केसरी सिंह २ः और सूर्य ३. तथा सर्वकला पूर्ण चन्द्रमा ४ ये पुराण पुरुषों के गर्भ में आवमे के अद्भुत स्पष्ट देख आश्पर्य को प्राप्त भई फिर प्रभालके बादित्रऔर मंगल शब्द सुनकर सेजसे उठी प्रभात क्रियासे हर्षको प्रतिभया है मन जिसका महा विनयक्ती सखी जनमण्डित भरतार के समीप जाय सिंहासन पर बैवी कैसी हैं सपी सिंहासन को शोभित करणहारी हाथ जोड़ नमीभूत होय पमोहर स्वप्ने जे देखे तितका वृत्तान्त स्वामी से कहाती भई तव समस्त विज्ञान के पारगामी राजा स्वप्नों का फल कहतेभए हे कांते ! परम भारवर्यका कारण तेरोमोचगामी पुत्र अन्तरः || वाख शत्रुषों का जीतनारः महाः पराक्रमी होणार सगो मोहादिक अन्तरंग के शत्रु कहिये और
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