Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म नारदने कही हे सुकौशल देशके अधिपति चित्तलगाए सुनतेरे कल्याणाकी बात कहूं हूं में भगवानका भक्त । पुराण | जहां जिनमंदिर होय वहां बंदना करूंहूं सो मैं लंकामें गयाथा वहां महा मनोहर श्रीशांतिनाथ का
चैत्यालय बन्दा सो एक बाती विभीषणादिके मुखसे सुनी कि रावणने बुधिसार निमित्त ज्ञानीको पूछा। कि मेरीमृत्यु कौननिमित्तसे है तब निमित्तज्ञानी ने कही दशरथका पुत्र और जनक की पुत्री इनके निमित्त से तेरीमृत्यु है सुनकर रावण सचिन्त भया तव विभीषणने कही आप चिन्ता न करें दोनों को पुत्रपुत्री नहोय उस पहिले दोनोंकोमें मारूंगासो तुम्हारे ठीक करने को विभीषननेहलकारे पठाएथेसो वे तुम्हारास्थान निरूपादि सब ठीक करगए हैं और मेरा विश्वास जान मुझे विभीषणने पूछी कि क्या तुम दशरथ और जनक का स्वरूप नीके जानोहो तब मैने कही मुझे उनको देखे बहुत दिन हुऐहैं अब उन को देख तुमको कहूंगा सो उनका अभिप्राय खोटा देखकर तुमपे आया सोजबतक वह विभीषण तुम्हारे मारनेका उपाय करे उस से पहिले तुम श्रापा छिपाय कहीं बैठरहो जे सम्यक् दृष्टि जिनधर्मी देव गुरु धर्म के भक्त हैं तिन सब से मेरी प्रीति है तुम सारखों से विशेष है सो तुम योग्य होय सो करो तुम्हारा कल्याण होय । अबमैं राजा जनकसे यह बृत्तान्त कहने को जाऊं हूं तब राजा ने उठ नारद का सत्कार किया नारद
आकाशके मार्ग होय मिथिरालपुरी की अोर गए जनक को समस्त वृत्तान्त कहा नारदको भव्यजीव जिनधर्मी प्राण से भी प्यारे, नारद तो वृत्तान्त कह देशांतर को गर और दोनोंही राजाबों कोमरणकी शंका उपजी राजा दशरथ ने अपने मंत्री समुद्रहृदय को बुलाय एकांत में नारद का कहा सकलवृतांत कहा तब राजा के मुख से मंत्री ये महाभय के समाचार सुन कर स्वामी की भक्ति में परायणऔर मंत्र
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