Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराणा ३८५
चढाय हस्ती लेगया तब इसको राज्यदिया यह न्याय संयुक्त राज्यकरे औरपुत्रके निकट दूत भेजा कितू पद्म मेरी आज्ञा मान तब उसने लिखा कि तू महा निन्धहै में तुझे नमस्कार न करूं तब यह पुत्रपर चढ़ कर | गया इसे श्रावता सुन लोग भागनेलगे कि यह मनुष्योंको खायगा पुत्र और इसके महायुद्ध भया सो पुत्र को युद्ध में जीत दोनों औरका राज्य पुत्रको देकर आप महा वैराग्य को प्राप्त होय तपके अर्थ बनमें गया।
_ अथानन्तर इसके पुत्र सिंहरथके ब्रह्म रथ पुत्र भया उसके चतुर्मुख उसके हेमरथ उसके सत्यरथ उसके पृथरथ उस के पयोरथ उसके दृढ़रथ उसके सूर्यरथ उसके मानधाता उसके बीरसेन उसके पृथ्वीमन्यु उनके कमलबन्धु दाप्ति से मानो सूर्यही है समस्त मर्यादा में प्रवीण उसके रविमन्यु उसके वसन्ततिलक उनके कुवेपत्त उनके कुंथु भक्त सो महाकीर्तिकाघारी उसकेशतरथ उसके द्विरदरथ उसके सिंहदमन उसके हिरण्यकशिपु उसके पुअस्थल उसके ककूस्थल उसके रघु महापराक्रमी यह इक्ष्वाक वंश श्री ऋषभदेवसे
प्रवरता सो वंशकी महिमा हे श्रेणिक तुझेकही ऋषभदेवके वंशमें श्रीराम पर्यंत अनेक बड़े बड़े राजा भए । वे मुनित्रत धार मोक्ष गए कै एक अहमिन्द्र भए के एक स्वर्ग में प्राप्त भए इस वंश में पापो विरले भए ।
_ अथानन्तर अयोध्यानगर में राजा रघु के अरण्य पुत्र भया जिसके प्रताप से उद्यान में वस्ती। होतीभई उके पृथिवीमती राणी महा गुणवन्ती महा कांतिं की धरण हारी महा रूपवती महा पतिव्रता । || उसके दो पुत्र होतेभये महा शुभ लक्षण एक अनन्तरथ दूसरा दशरथ सो राजा सहस्त्ररश्मि माहिष्मती | नगरीका पति उसकी और राजा अरण्य की परम मित्रता होतीभई मानों ये दोनों सौधर्म और ईशानइन्द्र
ही हैं जब रावण ने यछमें संहसरश्मिको जीत और उसने मुनिव्रत धरे सो सहसरश्मिके और अरण्यके यह
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