Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पीछे अयोध्या आई, और राजा नघोष उत्तरदिशा को जीतकर पाए सो स्त्री का पराक्रम सुन कोप को प्राप्त भए, मन में विचारी जे कुलवन्ती स्त्री अखण्डित शील की पालनहारी हैं तिन में एती धीठता न चाहिये, एसा निश्चय कर राणी सिंहिका से उदासचित्त भए, यह पतिव्रता महाशीलवन्ती पवित्र है चेष्टा जिसकी पटरोणी के पद से दूर करी सो महादरिद्रता को प्राप्त भई ॥ - अथानन्तर राजाके महादाहज्वरका विकार उपजा सो सर्वबद्य यत्नकरें पर तिनकी औषधि न लागे तब राणी सिंहिका राजा कोरोगग्रस्त जोन कर ब्याकुलचित्त भई और अपनी शुद्धताके अर्थ यह पतिव्रता पुरोहित मंत्री सामन्त सबन को बुलाय कर पुरोहितके हाथ अपने हाथका जलदिया, औरकहीकि यदि मैं मन वचन काय कर पतिव्रता हूं तो इस जलसे सींचा राजा दाहज्वर कर रहित होवे, तब जल सेसींचतेही राजा को ज्वर मिटगया और हिमविषे मग्न जैसा शीतल होय तैसा शीतल होगया मुख से ऐसे मनोहर शब्द कहता भया जैसे वीणा के शब्द होवें और आकाश में यह शब्द होते भए कि यह राणी सिंहिका पतिव्रता महाशीलवन्तीधन्यहै धन्यहै और आकाशस्ने पुष्पवर्षाभई तब राजाने राणीको महाशीलवन्तीजान फिर पट राणी का पद दिया और बहुत दिन निःकण्टक राज कियो फिर अपने बड़ों के चरित्र चिस विषे घर संसार | की माया से निस्पृह होय सिंहका राणीका पुन जो सौदास उसे राज्य देय पाप धीर वीर मुनिव्रत घरे, जो कार्य परम्पराय इनके बड़े करते आये हैं सो किया सोदास राज करे सो पापी मांसाहारी भया इनके वन्शमें किसी ने यह आहार न किया यह दुराचारी अष्टान्हकाके दिवसमें भी अभक्ष्य पाहार मतजता गया एक दिन रसोईदारसे कहताभया कि मेरे मांस भक्षणका अभिलाष उपजाहै तब तिसने कही हे महाराज !
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