Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुरान
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कुमार के शरीर से स्पर्शी उससे ऐसा सुख भया जैसा बहुत दिन बिबुरे मित्र सों मिले सुख होय कोकिलावों के मिष्ट शब्दों से श्रति हर्षित भया जैसे जीत का धब्द सुने हर्ष होय बवन से हाले हैं। वृक्षों के अग्र भाग सो मानोंपर्वत बज्रबाहु का सनमान ही करें हैं और भ्रमर गुंजार करें हैं सो मानवीय का नाद ही होय है बज्रबाहु का मन प्रसन्न भया बज्रबाहु पहाड़ की शोभा देखे हैं कि यह वृक्षयह कर्णकार जाति का वृक्ष यह रौद्र जातिका वृक्ष फलों से मंडित यह प्रयालवृक्ष यह पलाश का वृक्षअग्नि समान देदीप्यमान हैं पुष्प जिसके वृक्षों की शोभा देखते देखते राजकुमार की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी देख कर विचारता भगा यह थंभ है अथवा पर्वत का शिखर है अथवा मुनि हैं कायोत्सर्ग घर खड़े जो मुनि तिन में बज्रबाहु का ऐसा विचार भया कैसे हैं मुनि जिनको टुंड जान कर जिन के शरीर से मृग खाज खुजावे हैं जब नृप निकट गया तब निश्चय भया कि जो ये महा योगीश्वर विदेह अवस्थाको घरे कायोत्सर्ग ध्यान घरे स्थिर रूप खड़े हैं सूर्य की किरणों से स्पर्शा है मुख कमल जिनका और महासर्प के फण समान देदीप्यमान भुजावों को लंबाय ऊभे हैं सुमेरु का जोतट उस समान सुन्दर है बास्थल जिनका और दिग्गजों के बांघने के थंभ तिन समान अचल हैं जंघा जिनकी तप से क्षीण शरीर हैं परन्तु कांति से पष्ट दीखें हैं नासिका के अग्रभाग में लगाए हैं निश्चल सौम्य नेत्र जिन्होंने आत्मा को एकाग्र ध्यावैं हैं ऐसे मुनि को देख कर राजकुमार चितवता भया अहो धन्य हैं ये मुनिमहा शान्ति भाव के धारक जो समस्त परिग्रह को तजक़र मोचाभिलाषी होय तप करें हैं इनको निर्वाण निकट है, निज कल्याण में लगी है बुद्धि जिनकी पर जीवन को पीड़ा देने से निवृत भया है आत्मा जिनका
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