Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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चन
परास
.३५६
एक दिन सौधर्म इन्द्रने इनके रूपकी अति प्रशंसा करी सो रूप देखने को देव आये सो प्रछन्न आय कर चक्रवर्तीका रूप देखा उस समय चक्रववर्ति ने कुस्तीका अभ्यास कियाथा सो शरीर रजकर घूसरा होयरहाथा और सुगन्ध उबटना लगाथा और स्नानकी एक धोतीही पहने नानाप्रकारके जे सुगन्धजल तिनसे पूर्ण नानाप्रकार स्नानलिये रत्नोंके कलश तिनके मध्य रत्नोंके श्रासनपर विराजैथे सो देवरूप को देख आश्चर्यको प्राप्तभए परस्पर कहतेभए जैसा इन्द्रने वर्णनकिया तैसाही है यह मनुष्यकारूप देवों के चित्त को मोहित करनहारा है फिर चक्रवर्ती स्नान कर वस्त्राभरण पहर सिंहासन पर आय विराजे रत्नाचलके शिखर समान है ज्योति जिसकी और वह देव प्रकट होकर दारे आय ठाढ़ रहे और द्वारपाल से हाथजोड़ चक्रवर्त्तिको कहलाया कि स्वर्गलोकके देव तिहारा रूप देखने आए हैं सो चक्रवर्ति अद्भुत शृङ्गार किये विराजेंहीथे तब देवोंके आनेकर विशेष शोभाकरी तिनको बुलाया वे आये चक्रवर्तिकारूप देख माथा धुनतेभए और कहतेभये एकक्षण पहिले हमने स्नान के समय जैसा देखाथा तैसा अब नहीं मनुष्योंके शरीरकी शोभा क्षणभंगुर है धिक्कारहै इस असार जगत्की मायाको प्रथम दर्शनमें जो रूप यौवनकी अद्भुतताथी सो क्षणमात्रमें ऐसे विलायगई जैसे विजुली चमत्कार कर क्षणमात्र विलायजाय है येदेवों के वचन सनत्कुमार, सुन रूप और लक्ष्मी को क्षणभंगुर जान वीतराग भावधर महामुनि होय महातप करतेभये महा ऋद्धि उपजी तौभी कर्मनिर्जरा निमित्त महारोग की परीषह सहतेभए महा ध्यानारूढ़ होय समाधिमरणकर सनत्कुमार स्वर्ग सिधारे वे शान्तिनाथके पहिले और मघवा तीजा चक्र- | वत्ति उसके पीछेभये और पुण्डरीकनी नगरीमें राजा मेघरथ वह अपने पिता धनरथके शिष्य मुनिहोय ।
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