Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पन
।।३४.
कुलकी परिपाटी कर चली आई जो लंकापुरी उस विषे संसार के अद्भुत सुख भोगता भया कैसा है रावस राक्षस कहावें ऐसे जे विद्याधर तिनके कल का तिलक है और कैसी है लंका किसीप्रकारका प्रजा को नहीं है दुख जहाँ श्री मुनिसुव्रतनाथ के मुक्किगएपीछे और नामनाथ के उपजने से पहिले रावणभयासो बहुत पुरुषजेपरमार्थ रहित मूह सोक तिन्होंने उनका कथन और से औरकिया मांस भक्षी ठहराये सो वे मांसाहारी नहीं थे अनके माहारी एक सीताके हरखका अपराधी बनाउसकर मारेगये और परलोक विषे कष्टपाया केसेभीमुनि मुक्तनाथ का समय सम्यकदर्शन सानवारित्र की उत्पति का कारण है सो वह समय बीवे बहुसवर्षभर इसलिये सत्वरमान रहित विपवींजीवोंने बड़े पुरुषों कावन मौर से और किया। पापाचारी शीलवत रहितजे मनुष्य खोतिनकी कल्पना जालकप फांसीकर अविवेकी मन्दभाग्य जमनुष्य वेई भए मगसो बांधे गौतमस्थामी कहे हैं ऐसाजान कर हे मोणक त इन्द्र घरमोद चकवादि करबन्दनीकजो जिनराजका शाम्रसोईस्वभया उसे अंगीकार कर कैसा है जिनराजका शास्त्र सूर्यसे अधिक है तेज जिसका
और कैसा है तू जिन शास्रके श्रवणकर जानाहे वस्तुका सम्प जिसने और धोया है मिथ्यात्वरूपकर्दम का कलंक जिसने॥ इति उन्नीसवां पर्वपूर्णभया॥
अयानंतर राजा श्वेषिक महा विनयवान् निर्मल है बुद्धि जिसकी सो विद्माघरों का सकल वृत्तान्त सुन कर गौतमगमघर के चरणारविन्दको नमस्कार कर आश्चर्य को प्राप्त होता संता कहता
भया हे नाथ तुम्हारे प्रसाद से पाठवां प्रतिनारायण जो रावण उसकी उत्पत्ति और सकल बृतांत मैने | जाना, तथा सक्षसवंशी औरवानखंशीजे विद्यामर तिनके कुलकाभेद भलीभान्ति जाना अबमें तीर्थंकरों ।
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