Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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५३०७॥
पन | अत्यन्त दीन मन होय यह ऊंचे स्वर रुदन करे सो मृगी भी इसकी दशा देख प्रांसू डालने लगी। पुराण
बहुतदेरतक रोनेसे लाल होयगए हैं नेत्र जिसके तब सखीवसंतमाला महाविचक्षण इसे छातीसे लगायकर । कहतीभई कि हे स्वामिनी बहुत रोनेसे क्या जो कर्म तैंने उपार्जाहै सो अवश्य भोगनाहै सबही जावोंके कर्भ अागेपीछे लगरहे हैं सोकर्मके उदयमें शोक क्या हेदेवी जे स्वर्गलोकके देव सैकड़ों अप्सरावोंक नेत्रों कर निरन्तर अवलोकिये हैं वेभी सुकृतके अन्त होते परम दुःख पावे हैं मनमें चिंतिये कळू और होय जाय कछु और जगतके लोकं उद्यममें प्रवरते हैं तिनको पूर्वोपार्जित कर्मका उदयही कारण है जो हितकारी बस्तु आय प्राप्त भई सो अशुभकर्म के उदयसे विघटजाय और जो बस्तु मनसे अगोचरहै सोभी पाय ! मिले हैं कर्मोंकी गति विचित्रहै इस लिये बाई तू गर्भके खेद से पीडित है वृथा क्लेश मतकरे तू अपना मन दृढकर जो तेंने पूर्व जन्ममें कर्म उपारजे हैं तिनके फल टारे न टरें और तूतो महा बुद्धिमती है | तुझे क्या शिक्षादू जो तू न जानती होय तो मैं कहूं ऐसा कहकर इस के नेत्रोंके अपने बस्त्रसे अांसु पूछे और कहतीभई हेदेवी यह स्थानक श्राश्रय रहितहैं इस लिये उठो आगेचलें इस पहाडके निकट कोईगुफाहोयजहांदुष्टजीवोंका प्रवेश न होय तेरेप्रसूतिका समय आयाहै सो कैएकदिनयत्नसे रहना तब यह गर्भके भारसे आकाशके मार्ग चलनमें असमर्थहै भूमिपर सखी के संग गमन करती महा कसे पांव धरती भई कैसा है बनी अनेक अजगरों से भरी दुष्ट जीवों के नाद से अत्यन्त भयानक अतिशयन नाना प्रकार के वृक्षों से सूर्य की किरण का भी सञ्चार जहां नहीं सूई के अग्रभाग समान डाभ कापणी अतितीक्ष्ण जहां कंकर बहुत और माते हाथियों के समूह और भीलों के समूह बहुत हैं और वनीका बार
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