Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥३१४॥
पदा | दिया हैजर श्रीपार्थ का जीने ऐसा कहा तब यह नरककेदुःख से डरी सम्यक्दशन धारण किया श्रादिकाके
बतादरे श्रीजी की प्रतिमा मन्दिर में पधराई बहुत विधानसे अष्ट प्रकारकी पूजा कराई इस भान्ति राणी कनकोदरी को आर्यिका धर्म का उपदेश देय अपने स्थानक को गई और वह कनकोदरीश्रीसर्वज्ञ देव का धर्म आराध कर समाधिमरणकर स्वर्गलोक में गई, वहांमहासुख भोगे स्वर्ग से चयकर राजामहेन्द्रकीराणीजो मनोवेगा उस के अञ्जनी सुन्दरीनामा तू पुत्री भई सो पुण्यके प्रभावसे राजकुल में उपजी उत्तमबर पाया और जो जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को एक क्षण मन्दिरके बाहिर राखा था उस के पाप से धनी का वियोग और कुटुम्ब से पराभव पाया विवाह के तीन दिन पहिले पवनञ्जय प्रछन्न रूप आए रात्री में तुम्हारे झरोखे में प्रहस्त भित्रकसहित बैठ थे सो उस समय मिश्रकशी सखीने विद्युत्प्रभ की स्तुति करी, और पवनञ्जय की निन्दा करी उस कारण पवनञ्जय देष को प्राप्त भए फिर युद्ध के अर्थ घर चले मानसरोवर पर डेरा किया वहां चकवीका बिरह देखकर करुणाउपजी सो करुणाही मानो सखीका रूप होय कुमारको सुन्दरी केसमीप लाई तब उससे गर्भ रहा फिर कुमार प्रछन्नही पिताकी आज्ञाके साधिवेके अर्थ रावणके निकट गए ऐसा कहकर फिर मुनि अंजनी से कहते भए महा करुणाभाव कर अमृत रूप वचन गिरते भए हे वालके तू कर्मके उदस से ऐसे दुःखको प्राप्तभई इसलिये फिर ऐसा निद्यकर्म मत करना संसार समुद्र के | तारणहारे जे जिनेन्द्रदेव तिनकी भक्तिकर क्योंकि इस पृथिवी विवे जे सुख हैं वे सब जिन भक्ति के
प्रताप से होय हैं ऐसे अपने भव सुनकर अंजनी विस्मय को प्रासमई और अपने किये जे कर्म तिनको निन्द्यती अति पश्चाताप करतीभई तब मुनिने कही हे पुत्री अब तू अपनी शक्ति प्रमाण नियगले और
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