Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥३३१॥
पीड़ित होय रोवती हुई प्रहस्तसे कहती भई कि जो तू मेरे पुत्रको अकेला छोड़ाया सो भला न किया तब प्रहस्त ने कही मुझे अति आग्रहकर तुम्हारे निकट भेजा सो पाया अब वहां जाऊंगा सो माताने कही वह कहां है तब प्रहस्तने कही जहां अंजनी है वहां होयगा तब इसने कही अंजनी कहां है उसने कही में नजानं । हे माता जो बिना विचारे शीघही कामकरें तिनको पश्चाताप होय तुम्हारे पुत्रने ऐसो निश्चय किया कि जोमें प्रियाको न देखू तो प्राण त्यागकरूं यह सुनकर माता अति विलाप करतीभई अन्तहपुरकी सकल स्त्रीरुदन करती भई माता विलाप करे है हाय में पापनीने क्या किया जो महासतीको कलंक लगाया जिससे मेरापुत्र जीवनेके शंसय को प्राप्तभया में क्रूरभावकी घरनहारी महावक्र मन्द भागिनीने बिनाविचारे कामकिया यह नगर यह कुल और विजिया पर्वत और रावण का कटक पवनंजय विना शोभे नहीं मेरे पुत्र समान और कौन जिसने वरुण जो रोवण सेभी असाध्य उसे रणविषे क्षणमात्रमें बांधलिया हाय वत्स विनयके अाधार गुरुपूजनमें तत्पर जगत सुन्दर विख्यातगुण तू कहां गया तेरे दुख रूप अग्नि से तप्तायमान जो में सो हे पुत्र मातासे वचनालापकर मेरा शोक निवार ऐसे विलाप करती अपना उरस्थल और सिर कूटती जो केतुमती सो उसने सब कुटम्ब शोकरूप किया प्रल्हादभी आंसू डारते भए सर्व परिवारको साथले प्रहस्त को अगवानी कर अपने नगरसे पुत्र को ढूंढने चले दोनों श्रेणियों के सर्वविद्याधर प्रीति सों बुलाए सो परिवार सहित पाए सवही आकाश के मार्ग कुंवर को ढूँढे हैं पृथिवी में देखेंहैं और गम्भीर बन और लतावोंमें देखे हैं पर्वतों में देखेहैं और प्रतिसूर्यके पासभी प्रल्हादका दूत || गया सोसुनकर महा शोकवानभया और अञ्जनीसे कहा सो अंजनी प्रथम दुःखसेभी अधिक दुःखको प्राप्त
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