Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥३०॥
पद्म बैठने का भय होयसो ये दोनों बाहिर खड़ी विषमपाषाण केउलंघवेकर उपजाहैखेदजिनको इसलिये बैठ गई
वहां दृष्टि धर देखा कैसीहै दृष्टि श्याम श्वेत कमल समान प्रभाको धरे सो एक पवित्र शिला पर विराजे चारणमुनि देखे जोपल्यंकासन धरे अनेक ऋद्धिसंयुक्त निश्चलहें श्वासोच्छ्वास जिनके नासिकाके अग्रभाग परधरी है दृष्टिजिन्होंने शरीर स्तंभ समान निश्चलहै गोद पर घरा है जो बामा हाथ उसके ऊपर दाहना हाथ समुद्रसमान गंभीर अनेक उपमावों से विराजमान आत्मस्वरूप का जो पर्यायस्वभाव जैसा जिनशासन में गाया है तैसा ध्यान करते, समस्त परिग्रह रहित, पवनजैसे असंगीअाकाश जैसे निर्मल मानों पहाड़ केशिखर ही हैं सो इन दोनों ने देखे कैसे हैं वे साधु महापरोक्रम के धारी महाशान्ति ज्योति रूप है शरीर जिनका । ये दोनों मुनिके समीप गई सर्व दुःख विस्मरण भया तीन प्रदक्षिणा देय हाथ जोड़ नमस्कार किया, मुनि परमबांधव पाए फल गए हैं नेत्र जिनके जिससमय जो प्राप्ति होनीहोय सो होय तब ये दोनों हाथ जोड़ बिनती करती भई मुनिके चरणारविन्द की ओर घरे हैं अश्रुपातरहित स्थिर नेत्र जिनके हे भगवन् हे कल्यान रूप हे उत्तम चेष्टा के घरणहारे तुम्हारे शरीर में कुशल है कैसा है तुम्हारा देह सर्व तप बत आदि साधनों का मूल कारण है, हे गुणों के सागर ऊपरां ऊपर तप की है बृद्धि जिनके हे महा क्षमावान् शान्ति भाव के धारी मन इन्द्रियों के जीतनेहारे तुम्हारा जो विहार है सो जीवन के कल्याण निमित्तहै तुम सारिखे पुरुष सकल पुरुषोंकोकुशलके कारणहें सो तुम्हारी कुशल क्या पूछनी परन्तु यह पूछने का आचार है इस लिए पूछिये है ऐसा कह कर विनय से नम्री भूत भया है शरीर जिनका सो चप होय रहीं और मुनि के दर्शन से सर्वभयरहित भई ॥
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