Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुरास
॥३०४
भीतर प्रवेश करती द्वारपालने रोकी दुःखके योगकर औरही रूप होगया सो जानी न पड़ी तब सखी ने सर्व वृत्तान्त कहा सो जानकर शिलाकवाट नामा द्वारपाल ने एक और मनुष्य को द्वारे मेल श्राप राजा के निकट जाय विनती करी हे महाराज श्रापकी पुत्री आई है तब राजा के निकट सलन्नकीर्ति नामा पुत्र बैठाथा सो राजा ने पुत्रको आज्ञाकरी तुम सन्मुख जाय उसका शीघ्रही प्रवेश करावो और नगरकी शोभा करावो तुमतो पहिले जावो और हमारी असवारी तयार करावो हमभी पीछे से पावें हैं तब द्वारपालने हाथ जोड़ नमस्कार कर यथार्थ विनती करी तब राजा महेन्द्र लज्जा का कारण सुन कर महा कोषवान भए और पुत्रको प्राज्ञा करी कि पापिनी को नगर मेंसे काढ़ देवो जिसकी वार्ता सुनकर मेरे कान मानो वज्रकर हतेगए हैं तब एक महोत्साह नामा बड़ा सामन्त राजाका अति वल्लभ सो कहताभया हे नाथ ऐसी आज्ञा करनी उचित नहीं बसन्तमालासे सब ठीक पाडलेवो सासूके तुमती अति कर है और जिनधर्मसे पराङ्मुख है लौकिक सूत्र जो नास्तिक मत उस विषे प्रवीण है इसलिये विना विचारे इसको झूठा दोष लगाया यह धर्मात्मा श्रावक के व्रतकी धारणहारी कल्याण आचार विषे तत्पर उस पापिनी सासू ने निकासी है और तुमभी निकासो तो यह कौनके शरण जाय जैसे व्याघकी दृष्टिसे मृगी त्रासको प्राप्तभई सन्ती महागहन बनका शरणलेय तेसे यह भोली निःकपट सासू से शंकित भई तुम्हारे शरणे आई है मानो जेठके सूर्य की किरणके सन्ताप से दुखित भई महावृक्ष रूप जो तुम सो तुम्हारे पाश्रय पाई है यह गरीबिनी विहलहै आत्मा जिसका अपवादरूप जो भाताप उसकर पीड़ित तुम्हारे आश्रय भी साता न पावे तो कहां पावे मानो स्वर्ग से लक्ष्मीही आई है द्वारपाल ने रोकी सो
For Private and Personal Use Only