Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
पद्म, क्षेम से कार्य कर शिताबही श्रावेंगे तब प्राणप्रिया से अधिक से अधिक प्रीति करियो तब पवनंजयनैकही। ४३०॥ हे मित्र ऐसे ही करना ऐसा कहकर मित्रकोतोबाहिर पठाया औरापप्राणवल्लभासे अतिस्नेहकरउरसोलगा
य कहते भए हे प्रिये अब हम जाय हैं तुम उद्वेग मत करियो थोड़े ही दिनों में स्वामी को कामकर हम अावेंगे तुम अानन्दसे रहियो तब अंजनी सुन्दरी हाथ जोड़कर कहती भई हे महाराजकुमार मेरा ऋतुसमयहै सो गर्भ मुझकोअवश्य रहेगा और अब तक आपकी कृपा नहीं थी यह सर्व जाने हैं सो माता पिता मेरे कल्याण के निमित्त गर्भ का वृत्तान्त कह श्रावो तुम दीर्घदर्शी सब प्राणियों में प्रसिद्ध हो ऐसे जब प्रिया ने कहा तब प्राणबल्लभा को कहते भए हे प्यारी में माता पितासे बिदा होय निकसा सो अब उनके निकटजानाबने नहीं लज्जा उपजे है लोकमेरी चेष्टाजान सगे इसलिये जब तग तुम्हारागर्भ प्रकाशन पावे उसकेपहिले ही में आईं हूं तुम चित्त प्रसन्नराखो और कोई कहे तो ये मेरे नाम की मुद्रिका राखो हाथों के कड़े रासा तुमको सवशतिहोयगी ऐसाकहकर मुद्रिकादई औरषसंतमालाको प्राज्ञादईइनकीसेवाबहुतनीकेकरियो श्राप सेजसेउठे प्रियाविषे लगरहोहे प्रेम जिनका कैसी है सेजसंयोगके योगसे बिखररहे हैं हारके मुक्ता फल जहां और पुरुषों की सुगन्ध मकरंदसे भमे हैं भूमर जहां क्षीरसागरकी तरंग समान अति उज्ज्वल बिछे हैं पट जहां आप उठकर मित्रके सहित बिमानपर बैठ आकाशके मारग से चले अंजना सुन्दरी ने अमंगलके कारण आंसूनकादे हे श्रेणिक कदाचित इसलोक विषे उत्तम बस्तुके संयोगसे किंचित मुख होयहै सो क्षणभंगुरहै और देहधारियोंके पापके उदयसे दुख होयहै सुख दुख दोनों विनश्वर हैं इस लिये हर्ष विषाद न करना हो प्राणी हो जीवोंको निरन्तर सुखका देनेहाग दुख रूप अंधकारका दूर
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