Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
॥२६॥
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सहित हैं, लोचन जिसके तटके वृक्ष पर चढ़कर दशदिशा की ओर देखे है पीतमको न देखकर अतिशीघ्र ही भूमि पर आय पड़े हैं पांख हलाय हलाय कमलिनी की जो रज शरीर के लगी है सो दूर करे है सो कुमार ने घनी बेर तक दृष्टिधर चकवी की दशा देखी, दयाकर भीज गया है चित्त जिसका चित्तमें ऐसा विचारा कि पीतम के बियोगकर यह शोक रूपअग्निमेंबले है यह मनोग्य मानसरोवर और चन्द्रमाकी चांदनी चन्दन समान शीतल सो इस बियोगिनी चकवी को दावानल समान है पति बिना इसको कोमल पल्लवभी खड्ग समान भासे हैं चन्द्रमा की किरण भी बज्रसमान भासे है स्वर्ग भी नरकरूप होय आचरे है ॥ ऐसा चितवन करते इसका मन प्रिया विषे गया और इस मानसरोवर पर ही विवाह भया था सो वे विवाह के स्थानक दृष्टि में पडे सो इस को अतिशोक के कारण भये मर्म के भेदन हारे दु:सह करौंत समान बगे । चित्त में विचारता भया हायहाय मैक्रूरचित्त पापी वह निर्दोष वृषा तजी एक रात्रि का वियोग चकवी न सहार सके तो बाईस वर्ष का बियोग वह महासुन्दरी कैसे सहारे कटुक वचन उस की सखी
कहे थे उससे तो न कहे थे में पराएदोष से काहे को उसका परित्याग किया धिक्कार है मो सारिखे मूर्ख को जो बिना बिचारे काम करे ऐसे निःकपट प्राणी कोने कारण दुखश्रवस्थाकरी मैं पापचिस हूं वज्रसमान है हृदय मेराजो मैंने एते वर्ष ऐसी प्राणवल्लभा को वियोग दिया अब क्या करूं पितासेविदा होकर घर से निकसा कैसे पीले जाऊं बडासंकट पड़ाजो में उससे मिले बिना संग्राम में जाऊं तो वहजीवे नहीं उसके प्रभाव भएमेरा भी अभावहोगा जगतमें जीतव्य समान कोई पदार्थ नहीं इसलिएससंदेह का निवारणहारा मेरापरममित्र प्रहस्त विद्यमान हैं उससे सर्वभेद पृहुंवह सर्वप्रीति की रीति में
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