Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥१४॥
ने बहुत बिनय से रावण से बिनती करी और दूत को मारने न दिया और यह कहा कि हे महाराज यह पराया चाकर है इसका अपराध क्या जो वह कहावे सो यह कहे इसमें पुरुषार्थ नहीं अपनी देह आजीवका निमित्त पालने को बेंची है यह सूत्रा समानहै । ज्यों दूसराबुलावे त्यों बार्ले यह दूत लोग हैं इनके हिरदे में इनका स्वामी पिशाच रूप प्रवेश कर रहाहै उसके अनुसार बचन प्रवरते हैं जैसे वाजिंत्री जिस भांति बादित्र को बजावे उसी भांति वाजे तैसे इनकी देह पराधीन है स्वतंत्र नहीं इस लिये हे कृपानिधे प्रसन्न होवो और दुखी जीवोंपर दया करो हे निष्कपट महाधीर रंकके मारणेसे लोकमें बडी अपकीर्ति होयहै यह खडग तुम्हारा शत्रु लोगों के सिरपर पडेगा दीनके बध करने योग्य नहीं जैसे गरुड गिडोंयों को न मारे तैसे श्राप अनाथको न मारो इस भांति विभीषण ने उत्तम बचन रूपी जलसे रावणकी क्रोधाग्नि बुझाई बिभीषण महा सत्पुरुष हैं न्याय के वेताह रावणके पायन पड दूतको बचाया और सभाके लोकोंने दूत को बाहिर निकाला।
दूतने जायकर सर्व समाचार वैश्रवणसों कहे रावणके मुखकी अत्यंत कठोर वाणी रूपी इंधनसे वैश्रवण के क्रोधरूपी अग्नि उठी सो चित्तमें न समावे वह मानों सर्व सेवकोंके चित्तको बांटदीनी भावार्थसर्व क्रोधरूप भए रणसंग्रामके बाजे बजाए वैश्रवण सर्व सेनाले युद्धके अर्थ बाहिर निकसे इस वैश्रवणके बंशके विद्याधर यक्ष कहावें सो समस्त यक्षोंको साथ ले राक्षसों पर चले अति झलझलाट करते खडग सेल चक बाणादि अनेक आयुधों को धरेहैं अंजन गिरि समान मस्त हाथियों के मद मेरे हैं वे मानों नीझरनेही हैं तथा बडे रथ अनेक रत्नोंसे जड़े संध्याके बादलके रङ्ग समान मनोहर महा तेजबन्त अपने ।
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