Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुरास
२८
का मन में ध्यान कर करे और निश्चल लोचन सर्व चेष्टा रहित बटी रहे अन्तरङ्ग ध्यानमें पति का रूप निरूपण कर वाह्यभी दर्शन किया चाहे सो न होय तब शोक कर बैठ रहे चित्र पटमें पतिका चित्राम लिखने का उद्यम करे तब हाथ कांप कर कलम गिरपड़े दुखल होयगया है समस्त अंग जिसका ढीले होयकर गिर पड़े हैं सर्व आभूषण जिसके दीर्घ उष्ण जे उच्छवास उनकर मुरझायगये हैं कपोल जिस के अंग में वस्रके भी भारकर खेदको धरती संती अपने अशुभ कर्मको निंदती माता पिताको बारंबार याद करती संती शून्य भया है हृदय जिसका दुःखकर क्षीण शरीर मूर्खा में आजाय चेष्टा रहित होय जाय अश्रुपात से रुक गया है कण्ठ जिसका दुखकर निकसे हैं वचन जिसके विभ्रमभई संती दैव कहिये पूर्वोपार्जित कर्म उसे उलाहनादेय चन्द्रमाकी किरणोंसे भी जिको अति दाह उपजे और मन्दिरमें गमन करती माखाय गिरपड़े और विकल्पकी मारी ऐसे विचार करे अपने मनही में पतिसे बतलावे है नाथ तुम्हारे मनोग्य अंग मेरे हृदयमें निरन्तर शिष्ठे मुझे अाताप क्यो करें हैं और मैं अापका कछु अपराध नहीं किया निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो अब प्रसन्न होवो मैं तुम्हारी भक्तहूं मेरेचितके विषाद को हरो जैसे अन्तरंग दर्शन देवो हो तैसे बहिरंग देवो यह मैं हाथजोड़ बीनती करूं हूं जैसे सूर्यविना दिनकी शोभा नहीं और चन्द्रमा बिना रात्रीकी शोभा नहीं और दया क्षमाशील संतोषादि गुणबिना विद्याशोभे नहीं तैसे तुम्हारी कृपा बिना मेरी शोभा नहीं इसभांति चित्तविषे बसे जो पति उसे उलाहना देय और बड़ मोतियों समान नेत्रों से आंसुवों की बंद झरे महा कोमल सेज और अनेक सामग्री सखीजन करें परन्तु उसे कछ न सुहावे चक्रारूढ समान मनमें उपजा है वियोगसे भ्रम जिसको स्नानादि संसकार रहिव
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