Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पत्र
॥४८॥
कायर केई जल विषे प्रवेश करें केई रणमें प्रवेश करें केई देशांतरमें गमन करें केई कृषि कम करें ।। केईव्यापारकरें, कई सेवा करें। इसभान्ति मनुष्य गति में भी सुख दुःख की विचित्रता है,निश्चय विचारिये तो सर्वमति में दुःखहीहै दःखही को कल्पना करसुखमानेहें और मुनिव्रत तथा श्रावक के व्रतों से तथा अव्रत सम्यक्त से तथा अकाम निर्जस से, तथा अज्ञान तप से देवगति पावे हैं तिनमें कई बड़ी ऋद्धि के धारी केई अल्प ऋद्धि के धारी वायुकांतिप्रभाव बुद्धि सुखलेश्याकर ऊपरले देव चढ़ते और शरीर के अभिमान कर परिग्रह से घटते देवगति में भी हर्ष विषाद कर कर्म का संग्रह करे हैं । चतुरगति में यह जीव सदा अरहटकी पड़ीके यंत्रसमानभ्रमणकरे है अशुभ संकल्पसेदुःखको पावे हैं ।और शुभसंकल्प से सुख को । पाये हैं, और दान के प्रभाव से भोग भूमि विषे भोगों को पावे है, जे सर्व परिग्रह रहित मुनिव्रत केधारक हैं सो उत्तम पात्र कहिये और जे अघुबत के धारक श्रावक हैं, तथा श्राविका, तथा आर्यिका सो मध्यमपात्र कहिये है और व्रत रहित सम्यक दृष्टि हैं सो जघन्यपात्र कहिये हैं इन पात्रों को विनय भक्तिकर आहार देना सो पात्रका दान कहिये और वाल वृद्ध अंघ पंगु रोगी दुर्बल दुःखित भुखित इनको करुणा कर अन्न जल औषधि वस्त्रादिक दीजिये सो करुणादान कहिये, उत्कृष्ट पात्र के दान कर उत्कृष्ट भोगभूमि और मध्यमपात्र के दान कर मध्य भोगभूमि और जघन्य पात्र केदान कर जघन्यभोग भूमि होयहै, जो नरक निगोदादि दुःखसे रक्षाकरेसो पात्र कहिये । सो सम्यकदृष्टि मुनिराजहें वे जीवों की रक्षाकरे हैं जे सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र कर निर्मल हैं वे परमपात्र कहियेजिन के मान अपमान सुखदुःख तृण कांचन दोनों बराबर हैं तिनको उत्तम पात्र कहिए जिनके राग द्वेष नहीं जे सर्व परिग्रह रहित महा
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