Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥२५॥
विबेकी शुभोपयोग रूपहे चित्त जिनका वे ऐसा विचार कर हैं जगृहस्थ स्त्रासंयुक्त आरंभी परिमाही हिंसक काम क्रोधादि कर संयुक्त गबवन्त धनाढ्य और पापको पूज्य माने उनको भक्तिसे बहुत धन देना उस विखे क्या फल है और उनसे आप क्या ज्ञान पावें अहो यह बड़ा अज्ञान है कुमारग से ठगे जीव उसे पात्र दान कहे हैं और दुखी जीवोंको करुणादान न करे हैं दुष्ट धनाढ्योंको सर्व अवस्थामें धनदेय हैं सो वृथा धनका नाश करे ह धनवन्तोंको देनेसे क्या प्रयोजन दुःखियों को देना कार्यकारी है धिक्कारहै उन दुष्टोंको जो लोभके उदयसे खोटे ग्रन्थ बनाय मढ़ जीवोंको ठगे हैं जे मृषावादके प्रभावसे मांसहूं का भक्षण ठहरावें हैं पापी पाखण्डी मांसकाभी त्याग न करें तो और क्या करगे जेकर मांसका भक्षण करे हैं तथा जा मांसकादान करे हैं वे घोर वेदनायुक्त जो नरक उसमें पड़े हैं और जे हिंसाके उपकरण शस्त्रादिक तथा जे बन्धनके उपाय फांसी इत्यादि तिनका दान करे हैं तथा पंचेंद्रिय पशवोंका दान करे हैं और ज इन दानोंकी निरूपणा करे हैं वे सर्वथा निंद्य हैं जो कोई पशुका दान करे और वह पशु बांधने कर मारनेकर ताडिनेकर दुःखो होय तो देनहारेको दोष लागे और भूमिदानभी हिंसाका कारणहै जहां हिंसा वहां घम नहीं श्रीचैत्यालय के निमित्त भूमिका देवा युक्त है और प्रकार नहीं जो जीव घातकर पुण्य चाहे हैं सो पाषाण से दुग्ध चाहे हैं इसलिये इकइन्दी प्रादि पञ्चेन्दी पर्यन्त सर्व जीवोंको अभय दोनदेना
और विवेकियोंको ज्ञान दान दना पुस्तकादि देना और औषध अन्न जल वस्त्रादि सबको देना पशुवों को सूखे तृण दन और जैसे समुद्रमें सीप मेघका जल पिया सो मोती होय परणवे है तैसे संसार विषे द्रव्यके योग से सुपात्रांको यव आदि अन्नभी दिये महा फलको फले हैं और जो धनवान होय सुपात्रों
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