Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म।
॥२४।।
तपस्वी प्रात्मध्यान में नत्परते मुनि उत्तम पात्र कहिये, तिनको भाव कर अपनीशक्ति प्रमाण अन्न जल औषध देनी तथा वन में तिनके रहनेकेनिमित्त वस्तिका करावनी तथा आर्यावों को अन्न जल वस्त्र औषधी देनी श्रावक श्राविका सम्यकदृष्टियों को अन्न जल बस्त्र औषधि इत्यादि सर्वसामग्री देनी बहुत विनय से सो पात्रदान की विधि है, दीन अंधादि दुःखित जीवों को अन्न वस्रादि देनाबंदी से छुड़ावना यह करुणादान की राति है यद्यपि यह पात्रदान तुल्य नहीं तथापि योग्य है, पुण्य का कारण है पर उपकार सोही पुण्य है और जैसे भले क्षेत्र में बोया वीज बहुत गुणा होय फले है तैसे शुद्ध चित्त कर पात्रों को दिया दान अधिक फल को पले है, और जे पापी मिथ्या दृष्टि राग द्वेषादि युक्त व्रत क्रिया रहित महामानी वे पात्र नहीं और दीन भा नहीं तिनको देना निष्फल है नरकादिक का कारण है जैसे ऊप्सर (कल्लर) खेत विषे बाया बीज वृथा जाय है और जैसे एक कूप काजल ईष विषेप्राप्त हुआ मधुरता को लहे है और नोंव विखे गया कटुकता को मजे है तथा एक सरोवर को जल गाय ने पिया सो दूध रूप होय परणवे है और सर्प ने पिया विष होय परणवे है तैसे सम्यक दृष्टि पात्रोंको भक्ति कर दिया जो दानसो शुभ फल को फले है और पापी पाखंडीमिथ्यादृष्टिअभिमानीपरिग्रही तिनको भक्ति से दियादान अशुभ फल को फले है जे मसिमहारी मद्यपानी कुशील पापको पूज्य माने तिनका सत्कार न करना जिनधमियों की सेवा करनी दुःखियों को देख दया करनी और विपरीतियों से मध्यस्थ रहना दया सर्व जीवों परससनी किसीको लशन उपजावना औरजे जिन धर्म से पराड़मुख हैं परवादी हैं ते भी घम का करना ऐसा कहे हैं परन्तु धमका स्वरूप जाने नहीं इसलिये जे विवेकी हैं वे परखकर अङ्गीकार करे हैं कैसे हैं।
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