Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥२६२॥
तथा जिन भजन करना और अतिथि संविभाग कहिये अतिथि जे परिग्रह रहित मुनि जिन के तिथिवारका पुरा विचार नहीं सो आहारके निमित्त आवें महागुणोंके धारक तिनका विधिपूर्वक अपने वित्तानुसार बहुत आदर से योग्य आहार देना और मायके अन्त में अनशन ब्रतघर समाधिमरण करना सो संलेषनात्रत कहिये ये चार शिक्षात कहे पांच अणुव्रत तीनगुप् व्रत चार शिक्षात्रत ये बारहबत जानने जे जिनधर्मी हैं तिनके मद्यमांस मधु माषण उदवरादि अयोग्य फल रात्री भोजन बींधा अन्न अनवानाजल परदारा तथा दासी वेश्यासंगम इत्यादि अयोग्य क्रियाका सर्वथा त्याग है यह श्रावकके धर्म पालकर समाधि मरणकर उत्तम देव होय फिर उत्तम मनुष्य होय सिद्ध पदपावे है और जे शास्त्रोक्त आचारण करने को असमर्थ हैं न श्रावक पालें न यतिकेपरंतु जिनभाषित की दृढ़ श्रद्धा है तेभीनिकटसंसारी हैं सम्यक्त के प्रसाद से व्रतको धारणकर शिवपुरको प्राप्त होय हैं सर्वलाभमें श्रेष्ठजो सम्यकदर्शनका लाभ उससे ये जीव दुर्गतिक त्रास से छूटे हैं जो प्राणीभावसे भीजिनेंद्रदेवको नमस्कार करे हैं सो पुण्याधिकारी पापोंके क्लेश से निवृत होय हैं और जो प्राणभाव कर सर्वज्ञदेवको सुमरे हैं उस भव्यजीवके अशुभकर्म कोटभव के उपारजे तत्काल चय होय हैं और जो महाभाग्य त्रैलोक्य में सार जो अरिहंतदेव तिनको हृदयमें धारें हैं सो भव कूप में नहीं परे हैं उसके निरन्तर सर्व भाव प्रशस्त हैं और उसको अशुभ स्वप्न न आवें शुभ स्वप्नही
और शुभ शकुनही होयहैं और जो उत्तम जन " अर्हतेनमः,, यह बचन भावसे कहे हैं उस के शीघ्र ही मलिन कर्मका नाश होय है इस में संदेह नहीं मुक्ति योग्य प्राणीका चित्त रूप कुमद परम निर्मल वीतराग जिनचन्द्र की कथारूप जो किरण तिनके प्रसंगसे प्रफुल्लित होय है और जो विवेकी
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