Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥२६३॥
अरिहन्त सिद्ध साधुवोंके ताई नमस्कारकरे हैं सो सर्व जिन धर्मियोंका प्याराहै उसे अल्प संसारी जानना पुराण और जो उदारचित्त श्रीभगवानके चैत्यालय कराके जिनबिम्ब पधरावे हैं जिनपूजा करे हैं जिनस्तुति
करे हैं उसके इस जगतहीमें कुछ दुर्लभनहीं नरनाथकहिये राजा हो अथवा कुटम्बी कहिये किसान || होवे धनाम्यहोवे तथा दलिदीहोवे जो मनुष्य धर्मसे युक्तहै सो सर्व त्रैलोक्यमें पूज्यहै । जे नर महा विनयवान, और कृत्य अकृत्यके विचारमें प्रवीणहें कियह कार्यकरना यह नकरना ऐसा विवेक धरे हैं वे विवेकी धर्मके संयोगसे गृहस्थियोंमें मुख्यहें जेजन मधुमांस मद्यप्रादि अभक्ष्यका संसर्ग नहीं करे हैं तिनहीका जीवन सफल है । और शंका कहिये जिन बचनमें संदेह कांक्षा कहिये इस भवमें और परभवमें भोगोंकी बांछा विचिकित्सा कहिये रोगी वा दुखीको देख घृणा करणी आदर नहीं करना और आत्मज्ञानसे दूर जे परदृष्टि कहिये जिन धर्म से पराङ्मुख मिथ्यामार्गी तिनकी प्रशंसा करनी और अन्यशासन कहिये हिंसामार्ग उसके सेवन हारे जे निर्दयी मिथ्या दृष्टि उनके निकट जाय स्तुति करना ये पंच सम्यक दर्शन के अतीचार, तिनके त्यागी जे जन्तु कहिये प्राणी वे गृहस्थियोंमें मुख्य हैं और जो प्रियदर्शन कहिये प्यारा है दर्शन जिलको मुन्दर वस्त्राभरण पहिरे सुगन्ध शरीर पयादा धरतीको देखता निर्विकार जिनमंदिरमें जायहै शुभ कार्यों में उद्यमी उसके पुण्यका पार नहीं और जो पराए द्रव्यको तृण समान देखे हैं और परजीवको श्राप समान देखे हैं और परनारीको मातासमान देखे हैं सो धन्य धन्य धन्य हैं और जिसके ये भावहैं कि ऐसा दिन कब होयगा जोमै जिनेंद्री दीक्षा | लेकर महामुनि होय पृथ्वीविषे निर्द्वन्द्व बिहार करूंगा ये कर्म शत्रु अनादिके लगे हैं तिनका क्षयकर
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