Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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हैं जिनकस्वर्ण रत्नबस्नधान्योंकेअनेकभंडारहैं जिनकेविभवकी बड़े २ सामंत नानाप्रकारके आयुधोंकेधारक ४ २०१।। रक्षा करें तिनके बहुत हाथी घोड़े रथ पयादे बहुत गाय भैंस अनेक देश ग्रामनगर मनके हरनहारे पांच
इंद्रियों के विषय और हंसनीकीसी चाल चलें अति सुन्दरशुभलक्षण मधुर शब्द नेत्रोंको प्रिय मनोहर चेष्टाकी धरणहारी नानाप्रकार आभूषणकी धरणहारी स्त्री होयहैं । सकल सुखका मूल जो धर्महै उसे कैयक मूर्ख जानेही नहीं इसलिये तिनके धर्मका यत्ननहीं और कैएकमनुष्य सुनकर जाने हैं कि धर्म भलाहै परंतु पापकर्म के बशसे अकार्य में प्रवरते हैं सुखका उपाय जो धर्म उसे नहीं सेवे हैं और कैएक अशुभ कर्मके उपशांत होते उत्तम चेष्टा के धरणहारे श्रीगुरु के निकट जाय धर्म का स्वरूप उद्यमी होय पूछे हैं वे श्रीगुरु के बचन के प्रभाव से बस्तुका रहस्य जानकर श्रेष्ठ प्राचरणको आचरे हैं यह नियम जे धर्मात्मा बुद्धिमान पापक्रिया से रहित होयकर करें हैं वे महा गुणवन्त स्वर्गों के अद्भुत सुख भोगे हैं परंपराय माच पावे हैं जे मुनिराजों को निरंतर पाहार देय हैं और जिनके ऐसा नियम है कि मुनिके आहार का समय टार भोजन करें पहिले न करें वे धन्यहें उनके दर्शन की अभिलाषा देवभी राखे हैं दानके प्रभावसे यह ममुष्य इंद्रका पद पावें अथवा मन बांछित सुखका भोक्ता इंद्रके बराबरके देव होयहैं जैसे बटा बीज अल्प है सो बड़ा वृक्ष होय परणवे है तैसे दान तप अल्प भी महा फलके दाताहैं एकसहमभट सुभटने यह व्रतलियाथा कि मुनिके आहारकी बेला उलंघकर भोजन करूंगा सो एक दिन ऋद्धि के धारी मुनि आहार को आए सो निरंतराय श्राहार भया तबरत्नवृष्टि | आदि पंचाश्चर्य सुभट के घर भए वह सहमभट धर्मके प्रसाद से कुवेरकांत सेठ भया सब के नेत्रोंको
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