Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥२८॥
पुरुषहें और गुणोंसे प्रसिद्धहें शूरवीर हैं तिन का यश अयोग्य क्रियासे मलिनहोयहै इसलियेउठो जिस ! मार्गाए उसही मार्ग चलो जैसे छाने आए थे तैसे ही चले पवनंजय के मन में यह भ्रांति पड़ी कि इस कन्याको विद्युतप्रभही प्रियहै इस लिये उसकी प्रशंसा सुने है हमारी निन्दा मुने है जो इसे न भावे । तो दासी कहेको कहै यहरोसधर अपनेकहे स्यानकपहुंचे पवनंजयकुमार अंजनीसे प्रतिफीके पड़गए चित्त । में ऐसे चितवतेभए कि दूजे पुरुषकाहै अनुराग जिसको ऐसी अंजनीसो विकराल नदीकी न्याई दूरही । से तजनी कैसीहै वह अंजनीरूप नदी संदेहरूपजे विषम भ्रमण तिनको धरे है और खोटे भावरूप जे ग्राह तिनसे भरी है और वह नारी बनीसमानहै अज्ञानरूप अंधकारसे भरी इंद्रियरूप जे सर्प तिनको । घरे है पंडितोंको कदाचित नसेवनी । खोटे राजाकी सेवा और शत्रुके आश्रय जाना और शिथिल मित्र
और अनासक्त स्त्री इनसे मुख कहां देखो जे विवेकी हैं वे इष्टबन्धु तथा सुपुत्र और पतिव्रता नारी इनका भी त्यागकर महाव्रत धरे हैं और शुद्र पुरुष कुसंगभी नहीं तजे हैं मद्यपानी वैद्य और शिक्षा रहित हाथी और निःकार्ण वैरी क्रूरजन और हिंसारूप धर्म और मूखों वे चर्चा और मर्यादाका उनंघना निर्दई देश बालक राजा स्त्रीपर पुरुष अनुरागिनी इनको विवेकी तो इसभांति चितवन करता जो पवनं जयकुमार उसके जैसे दुलहिनसे प्रीति गई तैसे रात्रिगई और पूर्व दिशामें संध्या प्रकट भई मानों पकबंजयने अंजनीका राग छोडा सो भूमता फिरे है । (भावार्थ) गगका स्वरूप लालहै और इनसेजोगम मिटा सो उसने संध्याके मिसकर पूर्वदिशामें प्रवेश किया और सूर्यधारक्त ऐसाउगाजैसा स्त्रीके कोपसे पवनंजयकुमार कोपा कैसाहै सूर्यतरुण बिम्बको धरे है और जगतकी चेष्टाका कारणहै तब पवनंजयकुमार
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