Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण ॥२६॥
की वून्द परे हैं तिन बुन्दों कर महानदी का प्रवाह होय जाय है सो समुद्र विष जाय मिले है तैसे जो पुरुष दिन विपे एक महूर्त मात्र भी अाहार का त्याग करे सो एक मास में एक उपवास के फल को प्राप्त होय उस कर स्वर्गविषे बहुतकाल सुख भोगे मनवांछितभोग प्राप्तहोय जो कोई जिनमार्ग की श्रद्धा करता संता यथाशक्ति तपनियम करे तो उस महात्मा के दीर्घकाल स्वर्गविषमुखहोय औरस्वर्गसेचयकर मनुष्यभव विषे उत्तमभोगपावे है एकप्रज्ञान तापसी की पुत्रीबनविषेरहे सो महादुःखवंती बदरीफल (बेर) आदि करअजीविका पूर्णकरे उसने सत्संगसे एकमहूर्त मात्रभोजन का नियमलिया उसके प्रभावसेएकदिन राजाने देखी श्रादरसे परणी बहुतसंपदा पाई औरधर्मविषे बहुतसावधान भईअनेकनियम अादरे सो जो प्राणी कपटरहितहोय जिनवचन कोधारण करे सो निरंतरसुखीहोयपरलोक बिषेउत्तमगति पावैऔरजो दोमुहूर्तदिवस प्रतिभोजन का त्यागकरे उसकेएकमासमेंदोउपवासकाफलहोयतीसमुहूर्तका एकअहो रात्र गिनों औरतीन महूर्तप्रतिदिन अन्न जल का त्याग करे तो एकमास में तीन उपवास का फलहोयइसी भांति जेता अधिक नियम तेताही अधिक फल नियमके प्रसादसे ये प्राणी स्वर्गमे अद्भुत सुखभोगे हैं और स्वर्ग से चय कर अद्भुत चेष्टा के धारन हारे मनुष्य होय हैं महा कुलवन्ती महा रूपवन्ती महोगुणवन्ती महालावण्य कर लिप्त मोतियों के हार पहरे और मन केहरनहारे जे हाव भाव विलास विभ्रम तिन को धरेंजे शीलवन्ती स्त्रीतिन के पति होयह ौ स्त्री स्वर्ग से चय कर बडे कुल में उपजबडे राजावों की राणी होय हैं, लक्ष्मीसमान है स्वरूप जिनका और जोप्राणी रात्रि भोजनका त्याग करे हैं और जलमात्र नहीं रहे हैं उसके अति पुण्य उपजे हैं पुण्य कर अधिक प्रताप होय है और जो सम्यकदृष्टि |
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