Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
H२५८
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दुर्लभमनुष्यदेह को पाय जो मूढप्राणी समस्त क्लेश से रहित करनहारा जो मुनिका धर्म अथवा श्रावक का धर्म नहीं करे है सो बारम्बार दुर्गति विषे भ्रमण करे है । जैसे समुद्रमें गिरा महा गुणों का धरणहारा जो रत्न फिर हाथ आावना दुर्लभ है तैसे भव समुद्र के विषे नष्ट हुआ नरदेह फिर पावना दुर्लभ है. इस मनुष्य देह में शास्त्रोक्त धर्म का साधन कर कोई मुनिबत घर सिद्ध होय हैं और कई स्वर्ग निवासी देव तथा अहिमिन्द्र पद पावे हैं परमपरा मोक्ष पावे हैं । इसी भान्ति धर्म अधर्म के फल केवली के मुख से सुनकर सब ही हर्ष को प्राप्त भए । उस समय कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके ऐसा कुम्भकरण हाथ जोड़ नमस्कार करताभया । उपजा है प्रतिमानन्द जिसके । हे भगवान् ! मेरे अब भी तृप्ति न भई इसलिये विस्तार कर धर्मका व्याख्यान विधि पूर्वक मोहे कहो तब भगवान् अनन्तवीर्य कहते भए । हे भव्य ! धर्म का विशेष वर्णन सुनो जिससे यह प्राणी संसारके बन्धन से छूटे सो धर्म दो प्रकारका है एक महात्रत रूप दूजा अणुव्रत रूप सो महात्रतरूप यति का धर्म है अणुत्रतरूप श्रावक का धर्म है । यति घरके त्यागी हैं श्रावक गृहवासी हैं तुम प्रथम ही सर्व पापों का नाश करनहारा सर्व परिग्रह के त्यागी जे महामुनि तिनको धर्म सुनो । इस अवसर्पणी काल में अबतक ऋषभदेव से मुनिसुव्रत पर्यन्त बीस तीर्थंकर हो चुके हैं अब चार और होवेंगे इस भान्ति अनन्त भए और अनन्त होवेंगे सो सब का एक मत है यह श्रीमुनिसुव्रतनाथ का समय है । सो अनेक महापुरुष जन्म मरण के दुःख से महा भयभीत भए इस शरीर को एरण्ड की लकड़ी समान असार जान सर्व परिग्रह को त्याग कर मुनित्रत को प्राप्त भए वे साधु अहिंसा, असत्य, अचौर्य,ब्रह्मचर्य परिग्रहत्यागरूप पञ्चमहात्रत तिनमें रत तत्वज्ञानविषे तत्परपञ्चसमिति के पालनहारे,
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