Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराव २०५५
निधि परम शातहें सकल इच्छासे रहितहें और ऐसीसामर्थ है चाहें तो मूर्यका आताप निवारें चंद्रमा । की शीतलता निवारें चाहें तो जलवृष्टिकर चणमात्रमें जगतको पूर्ण करें चाहें तो भस्म करें कूरदृष्टि कर देखें तो प्राण हरे कृपादृष्टि कर देखें तो रंकसे राजा करें चाहें तो रस्न स्वर्ण की वर्षा करें चाहेंतो पाषणकी वर्षा करें इत्यादि सामर्थ है परन्तु करें नहीं करें तो चारित्र का नाश होय उन मुनियों के चरमारज कर सर्व रोग जांय मनुष्योंको अद्भुत विभवके कारण तिनके चरण कमलहें जीव धर्म कर अनन्त शक्तिको प्राप्त होयहें धर्मकर कर्मनको हरे हैं और कदाचित कोऊ जन्म लेयतो सौधर्म स्वर्गादि सर्वार्थ सिद्ध पर्यंत जाय स्वर्गविवे इन्द्रपद पावें तथा इन्द्र समान विभूतिके धारक देव होंय जिनके अनेक खणके मंदिर स्वपके स्फटिक मागके वैडूर्य मणिके यंभ भोर रत्नमई भीति देदीप्यमान और सुंदर झरोखोसेशोभायमान पद्मरागमणि आदि नानाप्रकारकी ममिक शिस्वरहैं जिनके और मोतियों की झालरोंसेशोभित और जिनमहलों में अनेक चित्राम सिंहोंकेगजोंके हंसोंके स्वानों के हिरणोंकेमयूर कोकि लादिकों के दोनों भीत विषे रत्नमई विनाम शोभायमान हैं चन्द्रशालादि से युक्त ध्वजाओं की पंक्तिकर शोभित अत्यन्त मनके हरणहारे मंदिर सजे हैं श्रासनादि से संयुक्त जहां नाना प्रकार के वास्त्रि बाजे हैं आज्ञाकारी सेवक देव और महा मनोहर देवांगना अद्भुत देव लोक के मुख महा संदर सरोवर कमलादिकर संयुक्त कल्पवृत्तोंके बन बिमान आदि विभूतियें यह सभी जीव धर्मके प्रभाव करपावे हैं और कैसे हैं स्वनिवासी देव अपनी कांतिकर और दीप्ति कर चांद सूर्यको जीते हैं स्वर्गलोकविषेरात्रि आरे दिवस नहीं षटऋतु नहीं निद्रा नहीं और देवोंकाशरीर माता पितासे उत्पन्ननहीं होता
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