Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥२५३॥
पद्म लोहके पांजरमें पड़ेश्रामाप पाशकर वेढे धर्मरूपांपाकर छूटे हैं व्याकरणसे धर्म शब्दका यही अर्थ हुवा
है जो धर्म अाचारता हुवा दुर्मतिमें पड़ातेप्राणियोंको थामे सो धर्म कहिये । उस धर्मका जो लामसो लाभ कहिये। जिनशासन विषे जो धर्मका स्वरूप को सो संचपसे तुमको कहे हैं धर्मके भेद और धर्मके फलके भेद एकाप्रमन कर सुनो । हिंसासे असत्यसे चोरीसे कुशीलसे धन और परिग्रह के संग्रह से विरक्त होना इन पापोंका त्याग करना सो महानत कहिये । विवेकियोंको उसका धारण करना और भापि निरखकर चलना हितामित सन्देहरहित बोलमा निदोंप आहार लेना यत्नस पुस्तकादि उबवना मेलना मिजंतुभूमि विषे शरीरका मल बारमा ये पांच सुमति कहिये । तिनका पालना बनकर और || मन बचन कायकी जो वृत्ति उसका प्रभाव उसका नाम तीन गुति कहिले सो परम भादरसे साधुवों को अंगीकार करनी । कोषमान मायालोभ ये काय जीवके महाशत्रु सो घमासे कोषकोजीतना और मार्दव कहिये निगर्वपरिणाम उससे मानको जीतना और चार्जव कहिये सरल परिणाम निकपटभाव उससे मायाचारको जीतना और संतोषसे लोभको जीतना शास्त्रोक धर्मके करनहारे जे मुनि उनको कषायोंका निग्रह करना योग्यई ये पंच महाबत पंच सुमात तीन गुप्ति कषाय निग्रहसोमुनि राजका धर्म है और मुमिका मुख्य धर्म त्यागहै जोसर्व त्यागी होय सोही मुनीहै और रसनास्पर्शन प्राण चतुः श्रोत्र ये प्रसिद्ध पांच इन्द्री तिनका वश करना सो धर्म है और अनशन कहिये उपवास
श्रामोदर्य कहिये अल्पाहार व्रत परिसंख्या कहिये विषम प्रतिज्ञाका घारना अटपटी बात विचारनी || कि इस विधि आहार मिलेगा तो लेवेंगे नाता नहीं और रस परित्याग कहिये रसोंका त्याग विविक्त।
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