Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्मा
पुराण २१३॥
जलकर इसकी कीर्तिरूपी बेलको सींचतेभये कैसीहै कीर्ति निर्मलहै स्वरूप जिसका कृसान लोग ऐसे कहतेभये कि बड़े भाग हमारे जो हमारे देश में रत्नश्रवोका पुत्र रावण आया हम रंकलोग कृषिकर्ममें आसक्त रूखे अंगखोटे वस्त्र हाथ पग करकश क्लेशसे हमारा सुख स्वादरहित एता कालगया अब इसके प्रभावसे हम सम्पदादिकर पूर्ण भए पुण्यका उदय आया सर्व दुःखोंको दूर करणहारा रावणाया जिनजिन देशोंमें यह कल्याण का भरा विचरे वे देश सर्व सम्पदाकर पूर्ण होवें दशमुख दलिदियोंका दलिद्र देख न सके जिनको दुःख मेटनेकी शक्ति नहीं तिन भाइयोंकर क्या सिद्धि होय है यहतो सर्व प्राणियोंका बड़ा भाई होताभया यह रावण अपने गुणोंकर लोगोंका अनुराग बढ़ावताभया जिसके राज में शीत और उष्णभी प्रजाको बाधा न कर सकें तो चोर चुगल बठपरे तथा सिंह गजादिकों की बाधा कहांसे होय जिसके राज्यमें पवनपानी अग्निकी भी प्रजाको बाधा न होय सर्व वात सुखदाईही होती भई ॥ ___ अथानन्तर रावणकी दिग्विजय विषे वर्षाऋतु आई मानो रावणसे आय मिली मानों इन्द्रने श्याम घटारूपी गज भेट भेजी कैसे हैं गज काले मेघ महा नीलाचल समान विजुरी रूप स्वर्ण की सांकल घरे और बुगुलोंकी पंक्ति भई ध्वजा तिनकर शोभितहैं शरीर जिनके इन्द्र धनुषरूप अभूषण पहरे जब वर्षाऋतु आई तब दशोंदिशा में अन्धकार होगया सत्रिदिवस का भेद जाना न पड़े सो यह युक्तही है श्याम होय सो श्मामताही प्रगटकरे मेघभी श्याम और अंधकार भी श्याम पृथिवी विषे मेषकी मोटी धारा अखण्ड बरसतीभई जो माननी नायकाके मनविषे मानका भास्था सो मेघके गर्जजनकर वक्षमात्र में विलयगया और मेघकी ध्वनि कर भयको पाई जे मानिनी भामिनी वे स्वयमेवही भरतार से स्नेह
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