Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराव ॥२२४॥
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से न छूटे इसप्रकार पहले उसको लेभावो जीवोंके प्राणोंकी रचा यहीधर्म है ऐसा कहकर सनीको सीख दीनी सो जायकर उपरंभाको तत्काल ले भाई रावणने इसका बहुत सनमान किया तब वह मदन सेवनकी प्रार्थना करती भई रावणने कही हे देवी दुर्लध नगर में मेरी रमणेकी इच्छा है यहां उद्यान में कहां सुख ऐसा करो जो मगर विषे तुम सहित रमूं तब वह कामातुर उसकी कुटिलता को न जान कर स्त्रियोंका मूढ स्वभाव होयहै उसने नगरके मायामई कोट भंजनका उपाय श्रसाल नाम विद्या दीनी । और बहुत श्रादरसे नानाप्रकारके दिव्यशस्त्र दिये देवोंकर करिये रक्षा जिनकी तब विद्या के लाभसे तत्काल मायामई कोट जाता रहा जो सदाका कोटथा सोही रहगया तब रावण बड़ी सेनाकर नगर के निकट गया और नगर में कोलाहल शब्द सुनकर राजा नलको वर चोभको भातभया मायामई कोट को न देखकर विषादमानभया और जाना कि रावण ने नगर लिया तथापि महापुरुषार्थको धरताहुआ युद्ध करने को बाहिर निकसा अनेक सामंतों सहित परस्पर शस्त्रन के समूहसे महा संग्रामप्रवरता जहां सूर्य के किरण भी नजरं न आवे क्रूर हैं शब्द जहां विभीषणने शीघ्र हीलातकी दे नलकुवरका रथ तोड़ डाला श्रीर नलकुंवरको पकड लिया जैसे रावणने सहस्रकिरणको पकड़ा था तैसे विभीषणने नलकुंवरको पकडा रावण की आयुशाला में सुर्दशनचक्र उपजा उपरंभाको रावणने एकांतमें कही जो तुम विद्यादानं से मेरे गुरु हो और तुमको यह योग्य नहीं जो अपने पतिको छोड़ दूजा पुरुष सेवा और मुझेभी अन्यायमार्ग सेवना योग्य नहीं इस भांति इसको दिलासा करी नलकुंवरको इसके अर्थ छोडा कैसा है नलकूंवर शस्त्रों से बिदारा गया है बकतर जिसका नहीं लगा है शरीर के घाव जिसके रावणने उपरंभासे कही इस भर
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