Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पन्न पुराण .२४
विभूति से संयुक्त लंका विषे प्रावनेका है मन जिसका तत्काल मनोहर उतंगनाद सुनताभया तब महा हर्षवान होय मारीच मंत्रीको पूंछता भया हे मारीच ! यह सुंदर महानाद किसकाहै और दशोंदिशा काहेसे लाल होरही तब मारीचने कही हे देव यह केवलीकी गंधकुटीहै और अनेक देव दर्शन को
आवेहैं तिनके मनोहर शब्द होय रहेहैं और. देवोंके मुकटादि किरणोंकर यह दोदिशा रंगरूप होय रहीहैं इस स्वर्णके पर्वतविषे अनंतवीर्य मुनि तिनकोकेवल ज्ञानउपजाहै ये वचन सुनकर रावण बहुत श्रानंदको प्राप्त भया सम्यक दर्शनकर संयुक्तहै और इंद्रका बश करनहाराहे महाकांतिका धारी भाकाशसे केवलीकी बंदना के अर्थ पृथ्वी पर उतरा बंदनाकर स्तुति करी इन्द्रादिक अनेक देव केवली के समीप बैठेथे रावणभी हाय जोड़ नमस्कारकर अनेक विद्याघरों सहित उचित स्थानकमें तिष्ठा चतुरनिकाय के देव तथा तिर्यंच और अनेक मनुष्य केवलोक सभीप तिष्ठेथे उस समय किसी शिष्य ने पूछा हेदेव हे प्रभो अनेकपाणी धर्म और अधर्मके स्वरूप जाननेकी तथाीतनके फल जाननेकी अभिलापाराखे है और मुक्तिके कारण जाननाचाहें हैं सो तुम सही कहने योग्यहो सो कृपाकर कहो तब भगवानकेवल ज्ञानी अनन्तवार्यमर्यादि रूप अक्षर जिनमें विस्तर्णि अर्थ प्रतिनिपुण शुद्ध संदेह रहितसर्वके हितकारीप्रिय बचन कहतेभए अहो भव्य जीवहो यह जीवचेतनालक्षण अनादिकालका निरंतर प्रष्ट कर्मोंकर बंधा आछादितहै श्रात्मशक्ति जिसकी सोचतुरगतिमें भ्रमणकरेहे चौरासी लक्ष योनियोंमें नानाप्रकार इंद्रियोंकर उपजी जो वेदना उसे भोगताहुवा सदाकाल दुःखीहोय रागीदेषी मोही हुआ कर्मोके तीब्रमंद मध्य विपाकसे कुम्हारके चक्रवत पायाहे चतुरगतिका भ्रमण जिसने ज्ञानावर्णी |
For Private and Personal Use Only