Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
था अहिल्याका रमण अब कहा विरक्त होय पहाड़ सारिखा निश्चल तिष्ठा है तत्वार्थ के चितवनमें लगा है अत्यन्त स्थिर मन जिसका इस भांति परम मुनिकी तैने अवज्ञा करी सो वहतो अात्मसुखविषे मग्न तेरी बात कुछ हृदयमें न घरी उनके निकट उनका भाई कल्याणनामा मुनि तिष्ठेथा उसने तुझे कही यह महामुनि निरपराध तेंने इनकी हांसीकरी सो तेराभी पराभव होगा तब तेरी स्त्री सर्वश्री सम्यग्दृष्टि साधवोंकी पूजा करनहारी उसने नमस्कारकर कल्याण स्वामीको उपशांतकिया जो वह शांत न करती तो तू तत्काल साधुबोंकी कोपाग्नि से भस्म हो जाता तीन लोक में तप समान कोई बलवान् नहीं जैसी साधुवोंकी शक्ति है तैसी इन्द्रादिक देवोंकी शक्किभी नहीं जो पुरुष साधु लोगोंका निरादर करे हैं वे इस भवमें अत्यन्त दुखपाय नरक निगोदमें पड़े हैं मनकर भी साधुवों का अपमान न करिये जे मुनि जनको अपमान करे हैं सो इस भव और परभव में दुःखी होय हैं जो करचित्त मुनियों को मारें अथवा पीड़ा करें हैं सो अनन्तकाल दुःख भोगे हैं मुनि अवज्ञा समान और पाप नहीं मन वचन कायकर यह प्राणी जैसे कर्म करे हैं तैसाही फल पावे हैं इस भांति पुण्य पाप कर्मों के फल भले बुरे जीव भोगे हैं ऐसा जानकर धर्ममें बुद्धिकर अपने आत्माको संसार के दुःख से निवृत करो, महा मुनि के मुखसे राजा इन्द्र पूर्व भव सुन आश्चर्यको प्राप्तभया नमस्कारकर मुनि से कहताभया हे भगवान ! तुम्हारे प्रसादसे मैंने उत्तम ज्ञान पाया अब सकल पाप क्षणमात्रमें विलयगये साधुवों के संगसे जगत् में कुछ दुर्लभ नहीं तिनके प्रसादकर अनन्त जन्म विषे न पाया जो आत्म ज्ञान सो पाइये है यह कह | कर मुनिको बारम्बार बन्दना करी मुनि आकाशमार्ग विहारकर गये इन्द्र गृहस्थाश्रम से परम बैराग्य
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