Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
॥२४४॥
को प्राप्त भया जलके बुदबुदा समान शरीरको असार जान घम में निश्चय बुद्धि कर अपनी अज्ञान चेष्टोको निंदताहुवा वह महापुरुष अपनी राज विभूति पुत्रको देकर अपने बहुत पुत्रों सहित और लोकपालों सहित तथा अनेक राजावोंसाहत सर्व कर्मका नाश करनहारी जिनेश्वरी दीक्षा पादरी सर्व परिग्रह का त्याग किया निरमलहै चित्त जिसका प्रथम अवस्था में जैसा शरीर भोगों कर लगाया था तैसाही तपके समूहमें लगाया ऐसा तप औरों से न बने बडे पुरुषों की बड़ी शक्ति है जैसी भोगों में प्रवरते तैसे विशुद्धभाव विषे प्रवर्ते हैं राजा इन्द्रबहुतकाल तपकर लुक्लध्यानके प्रताप से कर्मोका क्षय करनिर्वाण पधारे गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं देखो बड़े पुरुषों के चरित्र आश्चर्यकारी हैं प्रबल पराक्रमके धारक बहुत काल भोगकर वैराग्य लेय अविनाशी सुखको भोगावेहैं इसम कुछ आश्चर्य नहीं समस्त परिग्रहका त्यागकर क्षणमात्रमें ध्यानके बलसे मोटे पापोंका क्षयकरे हैं जैसे बहुत काल से ईंधन की राशि संचय करी सो क्षणमात्र में अग्निके संयोगसे भस्म होयहै जैसा जान कर हे प्राणी श्रात्मकल्याण का यत्न करो अन्तःकरण विशुद्ध करो मृत्युके दिन का कुछ निश्चय नहीं ज्ञान रूप सूर्य के प्रताप से अज्ञान तिमिर को हरो। इति तेरहवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ __ अथानन्तररावण विभव और देवेन्द्र सामान भोगोंकर मूढहै मन जिसका मनवांछित अनेक लीला विलास करता भया यह राजा इन्द्रका पकड़नहारा एकदिन सुमेरु पर्वतके चैत्यालयोंकी वन्दनाकर पीछे श्रावता था सप्तक्षेत्र षट् कुलाचल तिनकी शोभा देखता नाना प्रकारके वृक्ष नदी सरोवर स्फटिकमणि हूं से निर्मल महा मनोहर अवलोकन करता हुवा सूर्य के भवन समान विमाम में विराजमान महा
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